हिन्दू धर्म एकेश्वरवादी है लेकिन इस एकेश्वरवाद में सगुणोंपासना के लिए बहुदेवतावाद भी मान्य है. यदि सगुणोंपासना की बात करें तो पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं उतने देवता हो सकते हैं. हिन्दू धर्म में पुराणों ने सगुणोंपासना के अंतर्गत सैकड़ों देवताओं को गढ़ दिया जिसके कारण हिन्दू काफी भ्रमित हो गया. सगुणोंपासना में जब वैष्णवों ने अवतारवाद को भी घुसेड़ा दिया तब यह और भी भ्रष्ट हो गया. हिन्दू धर्म में देवी और देवताओं की संख्या 33 करोड़ या 33 कोटि बताई गई है. संस्कृत में कोटि शब्द के दोनों अर्थ है- करोड़ और प्रकार. इसमें से किसको लिया जाए? आचार्यों के अनुसार जो श्रुति कहती है उसको लेना चाहिए.
बृहदारण्यक श्रुति में इस बावत महर्षि यज्ञवल्क्य से प्रश्न किया गया है, शाकल्य पूछता हैं ?
अथ हैनं विदग्धः शाकल्यः पप्रच्छः कत्य देवः, याज्ञवल्क्य, इति। स हेतयैव निविदा प्रतिपादे, यावंतो वैश्वदेवस्य निविद्य उच्यन्ते; त्रयः च त्रि च शता, त्रयः च त्रि च सहस्रेति। ओम् इति. होवाच, कत्य एव देव:, याज्ञवल्क्य, इति। त्रयश् त्रिंशाद इति. ओम् इति. होवाच, कत्य एव देव:, याज्ञवल्क्य, इति। साद इति. ओम् इति. होवाच, कत्य एव देव:, याज्ञवल्क्य, इति। त्रय इति. ओम् इति. होवाच, कत्य एव देव:, याज्ञवल्क्य, इति। द्रव इति. ओम् इति. होवाच, कत्य एव देव:, याज्ञवल्क्य, इति। अध्र्यधा इति. ओम् इति. होवाच, कत्य एव देव:, याज्ञवल्क्य, इति। एका इति, ओम् इति, होवाका कतमे ते त्रयश च त्रि च सहस्रेति.
-बृहदारण्यक, अध्याय 3
यह लम्बा प्रश्न था और याज्ञवल्क्य ने उसी प्रकार से उत्तर दिया जिसमे उन्होंने कहा मूलभूत रूप से देवता 33 हैं. ये देवताओं का समूह है जिनमे 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता हैं। इनको पौराणिक नाम दिया गया है जो इस प्रकार है –
12 आदित्य : 1. अंशुमान, 2. अर्यमा, 3. इन्द्र, 4. त्वष्टा, 5. धाता, 6. पर्जन्य, 7. पूषा, 8. भग, 9. मित्र, 10. वरुण, 11. विवस्वान और 12. विष्णु। ( ये आदित्य वेदों में प्रसिद्ध हैं )
8 वसु : 1. अप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष। (गौरतलब है कि याज्ञवल्क्य ने अग्नि, पृथ्वी, वायु इत्यादि 8 वसु कौन हैं ये बताया लेकिन उनके ऐसे नाम नहीं बताये. )
11 रुद्र : 1. शम्भू, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली।
2 अश्विनी कुमार : 1. नासत्य और 2. दस्त्र। (गौरतलब है कि याज्ञवल्क्य ने 11 रुद्रों को तो बताया लेकिन उनके ऐसे शिव के नाम नहीं बताये)
कुल : 12+8+11+2=33
33 देवी और देवताओं के अंशों से अन्य बहुत से देवी-देवता भी बन सकते हैं लेकिन सभी की संख्या मिलाकर भी 33 करोड़ तो नहीं होती।
इन देवताओं का वर्णन में क्रमश: याज्ञवल्क्य रुद्रादि देवताओं की प्रतिष्ठा बतलाते हुए कहते हैं कि ये एकादश रूद्र वास्तव में दस प्राण और मन ही हैं, ये कहीं बाहर नहीं हैं. रूद्र की परिभाषा श्रुति ‘रोदयते इति रूद्र:” कहकर यही बताती है कि दस प्राणों के उत्क्रमण करने पर मनुष्य रोता है. सभी देवताओं का मनुष्य के भीतर ही प्रतिष्ठित होने का निर्णय करके अंत में याज्ञवल्क्य दसों दिशाओं के देवताओं का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि वे सब हृदय में ही प्रतिष्ठित है अर्थात आत्मा में प्रतिष्ठित हैं. याज्ञवल्क्य कहते हैं सभी धर्म, देवताओं का आधार सत्य है “हृदयेन हि सत्यं जानाति, हृदये ह्य एव सत्यं प्रतिष्ठितं भवति” यह सत्य मनुष्य के हृदय में प्रतिष्ठित है. शाकल्य अंत में पूछता है कि ये हृदय कहाँ स्थापित हैं? याज्ञवल्क्य कहते हैं ‘अहल्लिका इति होवाच याज्ञवल्क्यः” और कहते हैं “प्रेत” अर्थात तुम मृत्यु को प्राप्त करोगे, तुम एक मूर्ख व्यक्ति हो। तुम मुझसे पूछ रहे हो, हृदय कहाँ स्थापित होता है? क्या तुम नहीं जानते कि हृदय कहाँ है? तुम हृदय के लिए एक आधार चाहते हो! यदि हृदय अपने आप में नहीं है, यदि कहीं और मानोगे, तुम्हारा क्या होगा? कुत्ते तुम्हें खा जायेंगे, और गिद्ध तुम्हें नोच डालेंगे. ” वे प्रश्न कर्ता शाकल्य से अंत में पूछते हैं कि तूने तो हमसे देवताओं के बारे में बड़ा लम्बा सवाल पूछा जो काफी थकाऊ था. अब तू एक प्रश्न का उत्तर दे, यदि तू इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाया तो तेरा सिर गिर जायेगा-
कस्मिन् नु त्वं चात्मा च प्रतिष्ठितौ स्थ इति। पकस्मिन् नु त्वं चैत्मा च प्रतिष्ठितौ स्थ इति। प्राण इति. कस्मिन् नु प्राणः प्रतिष्ठित इति। अपान इति. कस्मिन् एनवी अपानः प्रतिष्ठित इति। व्यान इति. कस्मिन् नु व्यानः प्रतिष्ठित इति। उदान इति. कस्मिन्न उदानः प्रतिष्ठित इति। समाना इति. स एषा, न इति। न इत् आत्मा, अघ्र्यः न हि गृह्यते, आश्रयः, न हि शिर्यते, असंगः न हि सज्यते, असितो न व्यथते, न ऋष्यति। एतनि अष्टव आयतनानि, अष्टौ लोकाः, अष्टौ देवः, अष्टौ पुरुषः। स यस् तं पुरुषं निरुह्य प्रत्युह्यक्रमात्, तम त्वा औपनिषदं पुरुषं पृच्छामि। तम सेन मे न विवक्ष्यसि मूर्धा ते विपतिषति। तम हा न मेने शाकल्यः, तस्य हा मूर्धा विपापता, अपि हास्य परिमोशिणोऽस्थिनि अपजहृः, अन्यं मन्यमानः।
यह देवता जो अशीर्य है (नष्ट नहीं होता), असंग है (जो आसक्त नहीं होता), जो असित है (व्यथित नहीं होता) जो सभी उपरोक्त वर्णित देवताओं का हृदय में उपसंहार करके समस्त औपाधिक धर्मों का अतिक्रमण करके स्थित है-जिसकी महिमा का सभी उपनिषदें गायन करती हैं. उस पुरुष के बारे में बता सको तो ठीक है अन्यथा तुम्हारा सिर धड़ से अलग हो जाएगा.
शाकल्य ब्रह्म ज्ञानी नहीं था, वह उत्तर नहीं दे पाया और उसका सिर पतित हो गया.
याज्ञवल्क्य ने देवताओं की संख्या पर इस उपनिषद विमर्श में अद्वैत ब्रह्म (एक देवता) की ही स्थापना की क्योंकि देवता तो सबका अन्तर्यामी एक ही है.

