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कलियुग का जो वर्णन हिन्दू ग्रन्थों में किया गया है उनमे एक प्रमुख बात धर्म के पतन के बारे में कही गई है. भागवत पुराण के अंतिम स्कंध में इस सम्बन्ध में तीन श्लोक कहे गये हैं –
लिङ्गमेवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वच: ॥ ४ ॥
अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दम्भ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्न‍ानमेव प्रसाधनम् ॥ ५ ॥
दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम् ।
उदरंभरता स्वार्थ: सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि ।
दाक्ष्यं कुटुम्बभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम् ॥ ६ ॥
किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति केवल बाहरी प्रतीकों के अनुसार निर्धारित की जाएगी. जो व्यक्ति शब्दों की बाजीगरी में बहुत चतुर होगा वही विद्वान माना जाएगा. धर्म के सिद्धांतों का पालन केवल प्रतिष्ठा के लिए किया जाएगा. कलियुग में कलि आश्रम में प्रवेश करेगा इसलिए आश्रम सांसारिक घरों से अलग नहीं होंगे अर्थात आश्रम के बाबा गृहस्थ की तरह भोगादि में लिप्त होंगे और वैसे ही उनके प्रपंच होंगे..

पुरी शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द जी महाराज ने अपने पुराने दिनों का स्मरण करते हुए कुम्भ के साधुओं की पोल खोल दी है. उन्होंने इस वीडियों में कहा कि कुम्भ में इन्हें शायद ध्यान, भजन करने का समय मिलता है. कुम्भ में गये सिर्फ प्रपंच करते हैं और भंडारे इत्यादि करके स्वयं को धनी बताने का प्रयास करते हैं या शक्ति प्रदर्शन करते है.