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आली! री मोहे बहुत ही अचरज होय
माटी के तन रहिबो के हित पाथर महल संजोय

कौड़ी-कौड़ी गिनत-गिनत पर साँस गिनत नहीं कोय
धन-धन, धन-धन करत-करत ही निधन एक दिन होय

भरी तिजोरी कनक कंकरी, हाथ तो खाली दोय
मकड़ जाल संसार घनेरा, फँसत मुदित मन खोय

फंसा जीव भव मृग तृष्णा में, अंत समय क्या होय?
देह, गेह और नेह में उलझे, मन सुलझावे कोय

माँ को गरभ कोठरी अंधरी, पुनि-पुनि जावो सोय
पुनरपि जनम मरन अति दूभर, तबहूँ भय नहीं होय।

-मृदुल कीर्ति