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भारत में अनेक सम्प्रदाय और दर्शन हजारो साल से अस्तित्व में हैं. आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन दोनों ही भारत में प्रारम्भ से ही मौजूद हैं. इनकी झलक षडदर्शन (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त) में मिलती है. इनके इतर भी अनेक मत रहे हैं जिनमें चार्वाक, बौध और जैन मत हैं. भारत में सभी धर्मों का आधार वेद ही हैं. गौतम बुद्ध कोई आकाश से नहीं पैदा हुए, उनके प्रतीत्यसमुत्पाद में अविद्या जरामरण कारण बताई गई है. यह अवधारणा उपनिषदों के दर्शन से ही आई. अनादि अविद्या ही दुःख का कारण है, यह वेदांत की प्रस्थापना है. वेद वाह्य दर्शनों में सांख्य दर्शन ही एक मात्र मौलिक दर्शन है.

महर्षि पराशर शक्ति ऋषि के पुत्र थे और वैष्णव थे. हलांकि ऋषियों को किसी सम्प्रदाय से नहीं जोड़ा जा सकता है, वे सभी के हैं लेकिन फिर भी विष्णु पुराण के रचयिता माने जाते हैं, इस कारण उन्हें वैष्णव कहा जाता है. उनके पुत्र वेदव्यास विष्णु के अवतार माने गये हैं. ऋषि-मुनि किसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित होकर भी उपनिषदों की ऋषि परम्परा के वाहक थे. उपनिषद ही वेदांत दर्शन कहा जाता है क्योंकि यह वेद का अन्त्य भाग है. उपनिषद परमसत्य के सम्बन्ध में अन्तिम ब्रह्मवाक्य हैं.
उपनिषद में कहीं भी ग्रहजनित अवतारवाद नहीं है. ऐसे में पराशर ऋषि के होराशास्त्र में ग्रहजनित अवतारवाद एक नई अवधारणा है जिसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है और यह किसी वैष्णव ज्योतिषी द्वारा ही उनके नाम पर मध्ययुग में लिखा गया और प्रचारित किया गया. बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है -उस अक्षर ब्रह्म के प्रशासन में सूर्य, चन्द्र अपने अपने कर्मो का सम्पादन करते हैं, उसकी आज्ञा से समय चलता है, निमेष, मुहूर्त, दिन-रात, महीने , ऋतुयें और सम्वत्सर होते हैं. ” एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्यचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिवौ विधृते तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि निमेषा मुहूर्ता अहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा इति ” ऐसे में जो ईश्वर इन ग्रह नक्षत्रों साहित चराचर जगत का कारण है, जिनके आदेश से ये अपने कर्मों में नियुक्त हैं; वे ग्रहादि इनके अवतार का कारण नहीं हो सकते और ग्रहों के चरित्र से ईश्वर सीमित नहीं होता. भागवत पुराण में सभी ग्रह-नक्षत्र काल विष्णु के अंगों में स्थापित बताये गये है.