
यह कहना गलत है कि योग का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. पतंजली का योग नास्तिक नहीं है. यह वैदिक है और उसी ईश्वर को गुरु मानता है जिसने सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा जी को वेदों का ज्ञान दिया. पतंजली इसी बात सूत्र में कहते हैं -“पूर्वेषाम् अपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्”. पतंजली इस ईश्वर का अभिन्न सम्बन्ध वेदों से स्थापित करते हैं और सूत्र “तस्य वाचक: प्रणव:” द्वारा वैदिक प्रणव को ही ईश्वर का वाचक कहते हैं. इसी ईश्वर को प्रणिधान का विषय बताते हैं.
वह ईश्वर पूर्व में उत्पन्न सभी गुरुओं का भी गुरु है, क्योंकि वह काल से सीमित नहीं है अर्थात् तीनो काल में विद्यमान है. भगवद्गीता में भी यही कहा गया है-कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्. भागवत पुराण में भी यही लिखा है -तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः. ईश्वर ने जिस ब्रह्मा जी को वेदों का ज्ञान दिया उसी ब्रह्मा ने सप्तऋषियों को उत्पन्न किया और मानस पुत्रों को उत्पन्न किया और उन्हें वही ज्ञान प्रदान किया जिससे वे प्रजापत्य कर्म कर सकें. इस सत्य को पतंजली स्थापित करते हैं. योग वैदिक धर्म से अभिन्न है. यदि योग को नास्तिक बना दिया जाय तो यह योग सिर्फ एक्सरसाइज रह जायेगा या एक्रोबेटिक बन कर रह जायेगा.
इधर बीच योग को नास्तिक सेक्युलर बता कर प्रचारित किया गया जिसका वैदिक धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. यह वैदिक योग का सम्मान नहीं करने के लिए किया गया. अन्य धर्म के लोगों को वैदिक धर्म को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं क्योकि ईश्वर एक ही है. पतंजली योग के लिए ईश्वरीय गुणों का आधान करने को योग की शर्त मानते हैं. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, करुणा. दया, मैत्री, अहिंसा आदि भाव योग के लिए आवश्यक है. यह पशु-मनुष्य को मनुष्य बनाता है और फिर उसे ऊपर उठाता है, आध्यात्मिक बनाता है. सभी के कल्याण की कामना करना “सर्वे भवन्तु सुखिन:” यह ईश्वरीय भाव है, इस भाव से योग का प्रारम्भ करने से योग की सिद्धि होती है.