
चेन्नई के चेंगलपेट्ट से 13 किमी दूर स्थित महाबलीपुरम के पास तिरूकल्लीकुण्ड्रम पक्षी तीर्थ नाम से प्रसिद्ध है. स्थल पुराण मान्यताओं के अनुसार यहां 5000 वर्षों से गिद्धों का जोड़ा रोज़ आता रहा है और शिव जी के दर्शन करता रहा है. स्थल पुराण भी एक पुराण है जिसमे तीर्थों में प्रसिद्ध कथा, विश्वास और उसका इतिहास लिखा रहता है. काशीखंड, केदार खंड इत्यादि हिस्से स्थल पुराण ही हैं. यहाँ के पुजारी दर्शन करने आए गिद्धों को भगवान शिव को लगा भोग प्रसाद खिलाते थे. लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां गिद्ध का जोड़ा नहीं आया इस विषय में पुजारियों का कहना है की कलियुग का पाप बढ़ जाने से गिद्धों ने आना बंद किया है. कुछ कहते गिद्धों का युग खत्म हो गया है.

पक्षी तीर्थ वेद गिरि पहाड़ी के एक ओर समतल स्थान पर है. यहां दिन में 11 बजे से दोपहर 2 बजे के बीच पक्षियों के दर्शन होते हैं. स्थल पुराण के अनुसार ये पक्षी चित्रकूट पर्वत पर तपस्या करते हैं, वे गिद्ध प्रयाग में गंगा-यमुना संगम में डूबकी लगाकर वहां से उड़कर यहां आते थे. यहां 10 बजे एक मंदिर के पुजारी उनको भोजन कराते थे जिसमें चावल, गेहूं, घी और शक्कर होता था. भोजन करने के बाद गिद्ध रामेश्वरम जाते थे और दर्शन करके चित्रकूट चले जाते थे. वे हर रोज यही करते थे. अंतिम बार जोड़े रूप में गिद्धों को 1998 में देखा गया, उसके बाद केवल एक गिद्ध और कुछ कौए भी हमेशा भोजन के लिए आते हैं और पुजारी के हाथ से खाते हैं.
स्थल पुराण के अनुसार पहले चार गिद्धों के जोड़े थे. ये चार जोड़े आठ मुनियों के प्रतीक थे जिनको भगवान शिव ने शाप दिया था. हर एक युग में एक जोड़ा गायब होता चला गया. कुछ लोगों का कहना है कि वहां के चालबाज पुजारियों ने अलग अलग जगह ये गिद्ध जोड़े में पाले हुए थे. जब निश्चित समय पर पुजारी बर्तन से ठोक कर आवाज लगाता था तब ये आ जाते थे. इन्हें पालने के स्थान पर मांस आदि देते थे जिसके कारण पर्वत पर आकर पुन: वहीं लौट जाते थे. ये गिद्ध क्रमश: मरते गये और बस एक ही बच गया था. इस गिद्ध को चमरगीध या मलगिद्ध कहते हैं, ये प्राय: गंद खाने वाले गिद्ध थे. इनका आकार चील से थोड़ा बड़ा होता है. इस स्थल को उर्तरकोडि, नंदीपुरी, इंद्रपुरी, नारायणपुरी, ब्रह्मपुरी, दिनकरपुरी और मुनिज्ञानपुरी नाम से भी जाना जाता था.

किंवदंती के अनुसार भारद्वाज मुनि ने भगवान शिव से दीर्घायु का वरदान मांगा ताकि वे चारों वेदों का अध्ययन कर सकें. भगवान शिव उनके समक्ष प्रकट हुए और उनको वेद सीखने का वरदान दिया. शिव ने इसके लिए तीन पर्वतों का निर्माण किया जो ऋग, यजुर व साम वेद के प्रतीक हैं. जबकि अथर्ववेद रूपी पर्वत से वे स्वयं प्रकट हुए. शिव ने हाथ में मिट्टी लेते हुए समझाया कि प्रिय भारद्वाज वेदों का अध्ययन मेरे हाथ की मिट्टी और खड़े पर्वतों की तरह है. अगर वेद सीखने के लिए तुम दीर्घायु होना चाहते हो लेकिन यह समझ लो कि सीखने का क्रम कभी समाप्त नहीं होता और इससे मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती.

भगवान ने उपदेश दिया कि कलियुग में भक्ति से ही मोक्ष संभव है. यह मान्यता है कि वेदगिरिश्वरर का जो मंदिर जिस पर्वत पर है वह वेदों का स्वरूप है. इस वजह से शिव की आराधना वेदगिरिश्वरर के रूप में होती है जिसका आशय वेद पर्वतों के अधिपति हैं. इस पर्वत को पवित्र माना गया है और इसकी भी परिक्रमा की जाती है.
भारत के आर्कियोलोजिकल सर्वे विभाग ने यहाँ पत्त्थर पर उत्कीर्ण पक्षी को 7वीं शताब्दी का बताया है. इस तीर्थ की चैतन्य महाप्रभु ने भी यात्रा की थी जिसका उनके चरितामृत में वर्णन है.