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उड़ीसा स्थित जगन्नाथ मन्दिर भगवान श्री कृष्ण का सुप्रसिद्ध मन्दिर है. वर्तमान में यह वैष्णव धाम है लेकिन प्राचीन समय में कभी यह क्षेत्र तंत्र का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हुआ करता था.यह मन्दिर के बाहरी दीवारों पर उकेरे सम्भोगरत मूर्ति शिल्पों को देख कर आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है. शाक्त साधक जगन्नाथ को भैरव और बिमला को उनकी शक्ति मान कर उनकी उपासना करते हैं. पूर्व में यह स्थल शाक्त साधना का सबसे बड़ा स्थल था लेकिन कालान्तर में वैष्णव शक्तिशाली हुए और मन्दिर सहित इस क्षेत्र पर उनका अधिपत्य हो गया. उड़ीसा जगन्नाथ क्षेत्र है और ऋग्वेद में प्रतिष्ठित कहा जाता है. जगन्नाथ भगवान का विग्रह नीम के पेड़ का तना से हर वर्ष एक बार निर्मित किया जाता है जिसे दारु ब्रह्म कहा जाता है. गौरतलब है कि नीम का सम्बन्ध शैव-शाक्त परम्परा से है. भगवान का पहला विग्रह खुद देवों के शिल्पकार विश्वकर्मा ने बनाया था. जगन्नाथ भगवान के साथ इस मन्दिर में सुभद्रा और बलराम स्थित हैं. श्री कृष्ण के साथ उनकी बहन सुभद्रा की पूजा भी तांत्रिक स्वरूप रखती है,सहस्रनाम में देवी को विष्णु सहोदरी कहा गया है.

जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ जी के दक्षिण भाग में पीछे शक्ति बिमला का मन्दिर स्थित है जो उनकी तांत्रिक शक्ति हैं और बायीं तरफ माता लक्ष्मी का मन्दिर है जो उनकी लौकिक पत्नी कही जाती हैं. भगवान जगन्नाथ को प्रसाद लगने के बाद वह माँ बिमला को ही भोग के लिए जाता है. उनके भोग के बाद ही यह पवित्र होता है .यह चर्या भी इसके तांत्रिक स्वरूप को स्पष्ट करता है. लोकाचार के अनुसार पति के उच्छिस्ट पर पत्नी का पहला अधिकार माना जाता है लेकिन यहाँ लक्ष्मी को यह अधिकार प्राप्त नहीं है. देवि बिमला के भोग के बाद ही वह महाप्रसाद बनता है.

ऐसी  कथा है कि भगवान शिव ने बैकुंठ में देखा की भगवान विष्णु के भोजन के बाद कुछ भोग जमीन पर गिर गया है. उन्होंने उसे उठा का खा लिया लेकिन कुछ कण उनकी दाढ़ी में लगे रहे.  नारद ने यह देखा और उसे निकाल कर खा लिया क्योकि विष्णु का यह पवित्र उच्छिस्ट था. पार्वती ने जब यह देखा तो बहुत नाराज हो गई क्योकि वह उनका हक़ था. उन्होंने इस बात की विष्णु भगवान से शिकायत की जिसपर पर भगवान ने उनके क्रोध को शांत करते हुए इनकी ईच्छा पूर्ण करने ले लिए कहा कि ‘कलियुग में जब मैं पुरी क्षेत्र में निवास करूंगा तब आप मेरी शक्ति के रूप में दक्षिण भाग में  निवास करेंगी और मेरे भोग के बॉद सारे भोग पर आपका ही अधिकार होगा.’ तब से जगन्नाथ को भोग लगने के बाद वो भोग देवी बिमला को लगता है .

किसी भी वैष्णव मन्दिर में मीट और मछली का भोग नहीं लगता . मां बिमला को विशेष उत्सव में मीट और मछली का भोग लगाया जाता है. मछली मन्दिर के भीतर स्थित मारकन्ड सरोवर से निकाली जाती है और उसे मन्दिर के पास ही स्थित किचन में पकाया जाता है और एक लम्बे तांत्रिक कर्म के बाद उसका भोग लगाया जाता है . गौरतलब है कि यह भोग सबको प्राप्त नहीं होता. देवी को दशहरा पर छाग की बलि भी दी जाती है जो बहुत गुप्त होता है. तांत्रिक बलि कर्म के समय मन्दिर से सभी वैष्णव लोगों निकाल दिया जाता है. यह सुबह होने से थोड़े देर पहले 2-3 बजे के इदगिर्द सम्पन्न होता है. देवी के निमित्त किये जाने वाले सभी तांत्रिक कर्म बंद दरवाजे के भीतर ही सम्पन्न होते हैं. सभी तांत्रिक कर्म 4 बजे जगन्नाथ मन्दिर के कपाट खुलने से पूर्व ही सम्पन्न कर लिया जाता है. इस तांत्रिक पूजा में उपस्थित लोगों को ही यह प्रसाद दिया जाता है .

प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः ।
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं।।
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि ॥

यह महाशक्ति बिमला ही छह अम्नायों की सींचती हुई अपनी योगभूमि में सोतीं हैं और भक्तों की अर्चना से प्रसन्न हो उन्हें सब कुछ प्रदान करती हैं .

जगन्नाथ मन्दिर के बाहर ऊपर अनेक सम्भोगरत प्रतिमाओं से भी इसके तांत्रिक स्वरूप का निश्चय अवश्य होता है और यह भी निश्चित होता है कि यह किसी तांत्रिक देवता का मन्दिर था जिस पर वैष्णवों ने किसी समय कब्जा कर लिया था. इस बात को स्वामी विवेकानंद समेत अनेक साधकों ने भी कहा है. बनारस के अघोर सम्प्रदाय के किनारामी अवधूत भगवान राम ने जगन्नाथ मन्दिर की यात्रा की थी और उन्होंने भी अपने प्रवचन में इसे तांत्रिक मन्दिर कहा है. जगन्नाथ पूरी में अक्सर अघोर सम्प्रदाय के तांत्रिक भी मन्दिर के बाहर प्रणाम करते हुए दिख जाते हैं.