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देवी दुर्गा के नौ रूप में पहला स्वरूप शैलपुत्री हैं. ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं, कल नवरात्रि के प्रथम दिन इनकी ही विशेष उपासना की जाती है.. कालिका पुराण के अनुसार महिषासुर वध के पूर्व कल्प में शैलपुत्री ही आदि शक्ति थीं “प्रोक्ता शैलपुत्र्याश्च पूर्व कल्पे तु भैरव:”. पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा. मां शैलपुत्री माता पार्वती का ही एक रूप हैं, हैमवती भी इन्हीं का नाम है. उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था.
देवी भागवत कथा के अनुसार जब इनका हिमालय के यहाँ जन्म हुआ तब हिमालय इन्हें पहचान नहीं पाए. तब देवी ने उनको दिव्य चक्षु प्रदान कर अपना विराट रूप दिखाया और तत्पश्चात हिमालय की प्रार्थना के बाद अपना सौम्य रूप दिखलाया था.  मां शैलपुत्री श्वेत वस्त्र धारण करती हैं और नंदी को अपनी सवारी बनाती हैं.  उनके एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में कमल है. मां शैलपुत्री को स्नेह, करूणा, धैर्य और इच्छाशक्ति की देवी माना जाता है.  नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है. सौम्य रूप में इनकी शैलपुत्री के रूप में पूजा की जाती है और उग्र रूप में उग्रचंडा की पूजा का प्रावधान है. प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित कर देवी पूजा उपासना करते हैं.

पूजा विधि  –
मां शैलपुत्री की पूजा के लिए जो यंत्र कहा गया है उसमे  बिंदु, षट्कोण, अष्टदल और भुपुर होता है. इस यंत्र का निर्माण कर इस पर भी देवी की विधिवत पूजा सम्पन्न की जा सकती है. शैलपुत्री श्वेत वर्ण की हैं और उन्हें सफेद वस्तुएं प्रिय हैं. मां को सफेद पुष्प. सफेद  वस्त्रों के साथ भोग में भी सफेद मिष्ठान और घी अर्पित किए जाते हैं. साथ ही इस दिन सफेद वस्त्र धारण कर पूजन करें . मान्यता है कि मां शैलपुत्री की पूजा करने से कुंवारी कन्याओं को सुयोग्य वर की प्राप्ति होती है.

मां शैलपुत्री के मंत्र

1- ऊँ ह्रीं शं शैलपुत्र्यै नमः॥

2-ॐ शां शीं शूं शैलपुत्र्यै  स्वाहा

3- या देवी सर्वभूतेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

शैलपुत्री देवी स्तुति

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

शैलपुत्री ध्यान:

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥

पूणेन्दु निभाम् गौरी मूलाधार स्थिताम् प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥

प्रफुल्ल वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोलाम् तुगम् कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागरः तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाम्यहम्॥

त्रिलोजननी त्वंहि परमानन्द प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाम्यहम्॥

चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह विनाशिनीं।
मुक्ति भुक्ति दायिनीं शैलपुत्री प्रणमाम्यहम्॥

माता शैलपुत्री की आरती

शैलपुत्री मां बैल पर सवार, करें देवता जय जयकार।

शिव शंकर की प्रिय भवानी। तेरी महिमा किसी ने ना जानी।।

पार्वती तू उमा कहलावे। जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।

ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू। दया करे धनवान करे तू।।

सोमवार को शिव संग प्यारी। आरती तेरी जिसने उतारी।

उसकी सगरी आस पुजा दो। सगरे दुख तकलीफ मिला दो।।

घी का सुंदर दीप जला के। गोला गरी का भोग लगा के।

श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं। प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।

जय गिरिराज किशोरी अंबे। शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।।

कथा-

प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया. इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया, किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रण नहीं भेजा. सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा.

अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बताई. सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं. अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है. उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा.

शंकर जी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ. पिता का यज्ञ देखने, वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी. उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर जी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी.

सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है.सारे लोग मुंह फेरे हुए हैं. केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया. बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे.

परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत ठेस पहुंची. उन्होंने यह भी देखा कि वहां चतुर्दिक भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है. दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे. यह सब देखकर सती का मन क्षोभ और क्रोध से भर उठा. उन्होंने सोचा भगवान शंकर जी की बात न मान, यहां आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है.

वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं. उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया. वज्रपात के समान इस  दु:खद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णत: विध्वंस करा दिया.

सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया. इस बार वे ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुई.