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भारतीय आध्यात्म के केंद्र में ज्योतिष स्थित है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। संसार हो या निर्वाण नियत देशकाल में ही प्राप्तव्य है। भारतीय आध्यात्म संसार और मुक्ति (निर्वाण) के सन्दर्भ में दो काल दक्षिणायन और उत्तरायण का जिक्र करता है। इन दोनों में उत्तरायण की महिमा ही सभी शास्त्रों में बताई गई है क्योंकि सनातन धर्म में मानव जीवन का चरम उद्देश्य समस्त प्रपंचों और दुखों से आत्यंतिक मुक्ति है। यह तार्किकत: पूछा जा सकता है कि यदि दो काल हैं, दो अयन, और गति है- संसार और निर्वाण हैं, तो इनके नियंता ग्रह भी होने चाहिए अर्थात दोनों काल के अलग अलग शासक ग्रह होने चाहिए ? दोनों प्रकार की मनोवृतियां और गतियाँ एक दूसरे से नितांत भिन्न हैं तो उन मनोवृत्तियों का निमार्ण करने वाले ग्रह भी तो अलग होने ही चाहिए! ज्योतिष विज्ञान के अनुसार ग्रहों की स्थिति के अनुसार ही व्यक्ति सांसारिक या सन्यासी होता है। मनुष्य की दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों के कारक ग्रह ही होते हैं। जन्म कुंडली में ग्रहों का लग्न, चन्द्रमा, नवम, दशम और पंचम इत्यादि भावों पर प्रभाव तथा कुछ प्रमुख योगों से ही मनुष्य के मनोभाव होते हैं। ये मनोभाव जातक के पूर्वार्जित कर्मों से ही बनते हैं जो उनके संस्कार में बीज रूप में दबे रहते हैं। ये बीज ही जन्म के बाद क्रमश: अंकुरित होते हैं और उसके अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक जीवन हो या सांसारिक जीवन -दोनों में ग्रहों की स्थिति ही मनोवृति या भाव का निर्माण करने वाली होती है। 
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।। -भगवद्गीता
जिस जिस भाव का स्मरण करते हुए देह का त्याग करता है उस उस भाव को प्राप्त करता है। यह मनोभाव जिन ग्रहों द्वारा शासित होते हैं उनके अनुसार ही मनुष्य की मनोवृति होती है और उस मनोवृत्ति में ही वह कर्मो को करता है और मृत्यु को प्राप्त होते समय जैसी मनोवृत्ति होती है तदनुसार ही उनका जन्म होता है। यदि मृत्यु के समय जातक की मनोवृत्ति रजोगुणी है, वह रूपये के बारे में या संसार के बारे ही सोचते हुए देह त्यागता है तो उसी के अनुकूल मनोवृत्ति के साथ पैदा होगा और वैसे ही ग्रह उसकी कुंडली में प्रभावी होंगे। सभी ग्रह त्रिगुणात्मक हैं (मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। -भगवद्गीता) उनके अनुसार ही व्यक्ति का मनोभाव बनता है। यदि देखें तो व्यक्ति की प्रवज्या या सन्यास उसकी प्रवृत्ति के अनुसार ही होता है – कोई शैव, कोई वैष्णव, कोई अघोरी होता है, कोई वेदांती होता है, कोई अति भावनात्मक होकर भक्त होता है, कोई निर्गन्थ दिगम्बर मुनि होता है , कोई यति , कोई दंडीस्वामी, कोई देवी उपासक, कोई स्थूल योग करने वाला, कोई हठयोगी अथवा कोई अत्यधिक दार्शनिक स्वभाव का होता है।

महर्षि पराशर ने कुंडली में ग्रहों के स्वभाव और बल के अनुसार ही प्रवज्या का स्वरूप बतलाया है –
चतुरादिभिरेकस्थै: प्रवज्या बलिभि: समा:। 
रव्यादिभिस्तपस्वी च कपाली रक्तवस्त्रभृत ।। 
एकदंडी यतिश्चक्रधरो निर्ग्रन्थक: क्रमात । 
ज्ञेया वीर्याधिकस्यैव सबलेषु बहुष्वपि ।। 
जिस जातक की कुंडली में चार से अधिक ग्रह एक राशि में हों उसे प्रवज्या होती है। यदि सूर्य बली हो तो जातक जंगल में कंदमूल सेवन कर तपस्या करने वाला होता है, चन्द्रमा बली हो तो कापाली, मंगल बली हो तो रक्त वस्त्र धारण करने वाला, बुध बली हो तो दंडी स्वामी, गुरु बली हो तो यति, शुक्र बली हो तो चक्र धारण करने वाला, शनि बली हो तो दिगम्बर होता है। राहु केतु राशि स्वामी और उनपर जिन ग्रहों की दृष्टि होती है उसी के अनुसार सन्यासी बनाते हैं।
 किसी भी कर्म के सम्पादन में तीनों गुणों की आवश्यकता होती है इसलिए मुक्ति के सन्दर्भ में भी सभी ग्रहों का अपना योगदान होता है लेकिन कुछ ग्रहों का विशेष प्रभाव कुंडली पर होता है जिन्हें रूलिंग प्लेनेट कहते हैं। जातक उन रूलिंग प्लेनेट के द्वारा ही मूलभूत रूप से शासित होता है। मसलन शनि एक तमोगुणी ग्रह है, इसका प्रकाश से बैर है तो यह तमोगुणी प्रवत्ति का प्रवर्तक है-इसे काल पुरुष का दुःख कहा गया है। यदि कुंडली में यह प्रभावी हो तो जातक क्लेश देने वाला, और क्लेश सहने वाला दोनों हो सकता है । शनि समस्त क्लेशों का जनक है जिनसे दुःख और पीड़ा प्राप्त होती है। लेकिन जब किसी जातक की कुंडली में सन्यास लिखित है तो शनि उसे कष्ट, दुःख इत्यादि सहने की योग्यता प्रदान करता है, शनि से तितिक्षा आती है। इसके तमोगुण से वह जातक स्थिरता को प्राप्त कर साधना करने की योग्यता अर्जित करता है। यदि यही जातक की कुंडली में प्रवज्या या सन्यास कारक है तो शनि निर्ग्रन्थ अर्थात दिगम्बर साधु बनायेगा है। यदि शनि योगकारक है तो अपनी स्थिति और बल के अनुसार ही प्रवज्या प्रदान करेगा। यदि शनि पर गुरु की दृष्टि है तो क्योकि गुरु शनि से निसर्गत: बली होता है इसलिए वह अपने अनुसार प्रवज्या प्रदान करेगा।

ऊपर दिए गये श्लोक में महर्षि पराशर ने ग्रहों के स्वभाव के अनुसार ही सन्यास और मुक्ति बताई गई है। बुध-गुरु प्रवज्या देंगे तो ये आदि शंकराचार्य की तरह दार्शनिक, यति, दंडी सन्यासी बनाते हैं । सभी ग्रह स्वभावानुसार मुक्ति के कारक होते हैं।  एक गंदा, नंगधडंग रहने वाला अघोर सम्प्रदाय में दीक्षित साधक भी मुक्ति प्राप्त करता है लेकिन उसकी मुक्ति का स्वरूप शनि तय करता है। यह साधक शनि की गंदी प्रवृत्ति के अनुसार दुःख, कष्ट में रहते हुए अपने पूर्वार्जित पुण्य के अनुसार किसी रूद्र अघोर देवता की पूजा साधना में संलग्न होकर अपनी मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ता है।  इसके विपरीत बुध और गुरु शुभ सात्विक ग्रह होने से स्वभाव के अनुसार प्रवज्या देते हैं और जातक शांकर, रामानुज, बौध इत्यादि सम्प्रदाय में दीक्षित होता है। यदि शुक्र प्रवज्या दे तो शुक्राचार्य की तरह बुद्धिमान मन्त्रविद बना सकता है, शुक्र रामकृष्ण की तरह शाक्त सन्यासी बना सकता है या कई बार भ्रष्ट भी कर सकता है। जन्म कुंडली में चन्द्रमा निर्बल हो और उसे लग्नेश देखे और ऐसा जातक सन्यासी बन जाये तो वह शोक संतप्त, दुखी होगा-उसे बड़ी कठिनाई से भोजन इत्यादि प्राप्त होगा। निर्बल क्रूर ग्रहों द्वारा दिए गये सन्यास में अक्सर जातक भिक्षुक बन कर रह जाता है। यह जरूरी नहीं कि सभी सन्यासी ज्ञान ही प्राप्त करते हैं, अनेक सन्यासियों को ग्रह महान दुःख का भोग कराने के लिए सन्यासी बनाते हैं।  मुक्ति और बंधन दोनों में ही सभी ग्रहों का अपना अपना योगदान होता है। संसार सृष्टिकर्म से उत्पन्न होता है, मुक्ति अर्थात निर्वाण सम्हार कर्म से कहा गया है। मुक्ति जीवन का चरम उद्देश्य है इसलिए भगवदगीता में सभी आश्रमों में भगवान ने सन्यास को अपना स्वरूप कहा है। यहाँ तक कि कर्मयोग का उपदेश करते समय भी भगवान ने सन्यास को प्रमुखता देते हुए त्याग पूर्वक कर्म करने की ही बात कही है।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।
यज्ञार्थ कर्म के इतर कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।।
This man becomes bound by actions other than that action meant for God. Without being attached, O son of Kunti, you perform actions for Him.
आध्यात्म मूलभूत रूप से एक सम्हार कर्म है। ज्ञानं सम्हार रूप है “सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञानेपरिसमाप्यते “। वे ग्रह जिनका स्वरूप सात्विक है वे ही इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आध्यात्म के लिए ज्यादातर ग्रहों का बलवान होना और उत्तरायण में होना जरूरी है साथ में गुरु का अच्छा होना भी जरूरी होता है। गुरु बृहस्पति के बिना तो ज्ञान और मुक्ति सम्भव ही नहीं है। दूसरी तरफ सृष्टि कर्म आध्यात्म के एकदम विपरीत है, दोनों के काल, उनके अभिमानी देवता और उनके शासक अलग अलग हैं। चंद्रमा द्वारा शासित दक्षिणायन सृष्टि कर्म से सम्बन्धित काल है इसलिए इसमें वो सभी ग्रह बलवान होते हैं जो सृष्टि कर्म को सम्पादित करने वाले होते हैं। आयुर्वेद में दक्षिणायन को चरक ने विसर्ग काल कहा है जो भगवद्गीता का शब्द है जहां भगवान ने कर्म को ही विसर्ग कहा है। ज्योतिष के अनुसार ही चरक ने लिखा है -यद्बबलं विसृजत्ययं, सौम्यत्वादत्र सोमो ही बलवान हीयते रवि अर्थात इस दक्षिणायन काल में व्यक्ति का बल बढ़ जाता है, सोम चन्द्रमा बलशाली हो जाता है और सूर्य का बल क्षीण हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि विसर्ग कर्म में सूर्य कमजोर हो जाता है। सूर्य यदि बली हो तो जातक को त्यागी और तपस्वी बना सकता है। संसारिकता के सन्दर्भ में सूर्य सुख विनाशक और कलहकारी होता है इसलिए दक्षिणायन में सूर्य को बलहीन कहा गया है। इस लोक में यह देखा गया है कि ज्यादातर सन्यासियों का सन्यास कलह से ही निष्पन्न होता है चाहे कलहकारी ग्रह सूर्य हो या अन्य कलहकारी शनि, मंगल, राहु इत्यादि। पौराणिक कथा में भी सूर्य के तेज से दुखी होकर सूर्य की पत्नी संज्ञा जंगल में तप करने चली गई थी। छाया (तिमिर, अंधकार, अज्ञानता) से ही शनि पैदा हुए । शनि दक्षिणायन में उच्च का हो जाता है जहाँ सूर्य नीच का होता है। निसर्ग कुंडली में शनि संसार (कर्म ) का कारक है जबकि सूर्य पंचमेश होकर विद्या, उपासना, पूजा का ग्रह हैं।  सूर्य इसलिए उत्तरायण में उच्च अवस्था को प्राप्त करते हैं और शनि दक्षिणायन में उच्च अवस्था को प्राप्त करता है। भगवान द्वारा स्थापित दो सनातन मार्गों और तत्सम्बन्धित काल में- दक्षिणायन कर्म का काल है, उत्तरायण मुक्ति का काल है तथा दोनों कालों का स्वरूप अलग अलग है, दोनों के अभिमानी देवता और ग्रह-नक्षत्र उसी के अनुसार कार्यरत होते हैं। 

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