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नाग केवल हिन्दू धर्म के देवताओं के साथ ही सम्बन्धित नहीं हैं, ये जैन बौध दोनों धर्मों में भी प्रमुख भूमिका में हैं. हिन्दू धर्म में नाग शिव लिंग के ईदगिर्द साढ़े तीन फेरे लगाये दिखाया जाता है, सगुण रूप में शिव जी के गले का हार हैं नाग वासुकी, वहीं भगवान विष्णु शेषनाग कि शैया पर शयन करते हैं. हिन्दू धर्म में अन्य देवताओं के भी अस्त्र और आभूषण के रूप में नाग देवता मौजूद रहते हैं. घोर त्वरिता देवी का ध्यान में अष्ट नाग का ध्यान उनके आभूषण के रूप में किया जाता है. नाग पाश बहुत शक्तिशाली अस्त्र हुआ करता था. नाग देवता कुंडलिनी का प्रतीक हैं. शिव लिंग के के चारो तरफ साढ़े तीन फेरे लगाये नाग देवता मूलभूत रूप से कुंडलिनी शक्ति को रिप्रेजेंट करते हैं. बौध धर्म में यह कथा है कि जब गौतम बुद्ध को निर्वाण मिला और बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान में थे तब नाग लोक से शेषनाग की तरह एक बड़ा नाग मुचलिन्डा आया और उनको घेर कर फन लगाये बैठा रहा जब तक सब कुछ सामान्य नहीं हो गया. फिर मनुष्य रूप धारण कर प्रणाम किया और चला गया.

ऐसा सिम्बोलिक रिप्रेजेंटेशन है. जब कुंडलिनी पूर्ण रूप से सभी तत्वों का भक्षण करती है तो तीनो लोक कांप जाते हैं. इंद्र का सिंहासन डोलने लगता है. ऐसा इसलिए कहा जाता है कि तब व्यक्ति महाशक्तिशाली हो जाता है. गौतम बुध महाशक्तिशाली बन गये और उन्हें सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो गई थीं. उनके सामने कोई खड़ा नहीं हो सकता था, उन्हें नये धर्म कि स्थापना करनी थी जो दुनिया के शक्तिशाली धर्मों में एक बनने वाला था. बौध और जैन धर्म में भी नाग की पूजा होती है.


जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के जीवन में भी एक विषैले सर्प चन्दकौशिक की कथा आती है. कथा के अनुसार एक समय किसी गाँव में चंडकौशिक नाम के सर्प का बड़ा आतंक था. जहाँ उसकी बाबी थी उधर से होकर कोई राहगीर नहीं जाता था. यह सर्प बहुत ही भयंकर जहरीला था, उसके जहर की सीमा इतनी थी कि दृष्टि मात्र से लोगों के जीवन का अंत कर देता था. उसकी फुफकार इतनी जहरीली थी उसके जहर से पूरा जंगल उजड़ गया था. उस समय महावीर उधर से गुजरे, महावीर को अपने पास देखा तो उसने अपनी विषैली दृष्टि भगवान महावीर पर डाली लेकिन उसका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. जब उसकी दृष्टि का प्रभाव नहीं हुआ तो उसने भयंकर विषैली फुफकार मारी ,पर महावीर पर्वत के समान अविचल खड़े रहे. इसके बाद उस सर्प ने भगवान महावीर के अंगूठे पर प्रहार किया और अपना संपूर्ण विष एकत्रित कर अंगूठे में वमन कर दिया. अंगूठे में रक्त के स्थान पर दूध की धारा बह निकली, यह देख कर उस विषधर को बहुत आश्चर्य हुआ. भगवान महावीर ने अपनी शांत वाणी में विषधर से कहा कि “शांत चंडकौशिक, शांत हो जाओ! तुम्हारे पूर्व जन्मों के कारण ही तुम्हें यह सर्प की योनि मिली है. अपने गुस्से के कारण तुम कितने और जन्म व्यर्थ करोगे, शांति और अहिंसा ही मुक्ति का मार्ग है.” भगवान महावीर की शांत वाणी को सुनकर विषधर शांत हो गया और उसने उसी वक्त से गुस्सा त्याग कर समर्पण कर दिया. इस दिन से ही जैन धर्म में नाग पंचमी मनाई जाती है.

अक्सर योगियों को सर्प के दर्शन होते हैं यह भी हिन्दू योगियों कि कथा में प्राप्त होता है. सर्प मनुष्य के आदि पितर भी हैं इसलिए भी ऐसी मान्यता है. चैतन्य चरितामृत में एक योगी का वर्णन है कि वह प्रतिदिन एक लाख नाम कीर्तन करते थे. उनकी कुटिया से थोड़ी दूर एक पहाड़ी गुफा में बड़ा भयंकर मणिधर नाग रहता था. उसके जहर का प्रकोप इतना था कि उसके इदगिर्द सारा वातावरण विषाक्त रहता था. गाँव वालों ने उनसे बिनती की कि वे सर्प को भगाने का कुछ उपाय करें. वे महात्मा जब गुफा के द्वार पर गये तो उन्हें देख सर्प बहार निकला और उन्हें प्रणाम कर पहाड़ी के जंगल में गायब हो गया.