भारतीय पुराण-साहित्य बहुत विस्तृत है. अट्ठारह पुराण प्रसिद्ध हैं. पुराण भी ज्ञान का कोष हैं. इनमें केवल धार्मिक कथायें, ऋषि-मुनि और राजाओं का इतिहास, पुजापाठ की विधियाँ और तीर्थों का वर्णन विस्तार से तो मिलता ही है साथ में प्राच्य विद्याओं औषधि विज्ञान, साहित्य,कला, गृह निर्माण शास्त्र, संगीत, रत्न विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, स्वप्न-शास्त्र आदि की भी पर्याप्त चर्चा की गई है. सूत्र काल के बाद BC के किसी काल खंड में वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी. भारतीय लेखन परम्परा में यह आदि ग्रन्थ मान्य है. वाल्मीकि रामायण को ही आधार बनाकर पहले पुराण की रचना की गई थी. सनातन धर्म में सब कुछ परम्परा में ही, परम्परा के अनुसार ही आगे बढ़ता है. विमर्श की जिस कथा परम्परा का प्रारम्भ वाल्मीकि ने किया था उसको पुराण साहित्य ने आगे बढ़ाया. विष्णु के दस अवतारों में मत्स्य अवतार पहला अवतार है इसलिए प्रथम मत्स्य पुराण है. मत्स्य पुराण लिखे जाने के सैकड़ो साल पहले महाभारत युग में वैष्णव धर्म में अवतारवाद की पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी. भागवत पुराण के अनुसार यदि देखें तो महाभारत काल 9000-12000 BC आता है. यह प्राचीनता ईसाईयों को नहीं पचती है इसलिए दुष्प्रचार करते रहते हैं.
मत्स्य पुराण के साथ सभी पुराणों में आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक विद्याओं का विशद वर्णन है तथा साथ में भारत वर्ष के राजवंशों और भारत वर्ष का वृहद चित्रण भी प्राप्त होता है. पुराणों में लोक जीवन के सभी पक्षों और धर्मों का अच्छी तरह प्रतिपादित किया गया है. मत्स्य पुराण में बताया गया है कि आख्यानैश्चप्युपाख्यानंर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः । पुराण संहिता चक्रे पुराणार्थ विशारदः ।।
महर्षि व्यास जी ने अख्यान, उपाख्यान गाथा और कल्पशुद्धि से युक्त ‘पुराण-संहिता’ की रचना की. इस पुराण संहिता का अध्ययन व्यासजी ने अपने सुप्रसिद्ध शिष्य रोमहर्षण सूत को कराया. रोमहर्षण के छ: शिष्य हुए-सुमति, अग्निवर्षा, भित्रायु, शांसपायन, अकृतव्रण और सावणि. इसमें से काश्यप गोत्रीय अकुतव्रण सावण और शासपायन ने पृथक-पृथक तीन सहिताय रची. उन तीनों का मूल आधार रोमहर्षण द्वारा रचित एक संहिता थी. प्रारम्भिक पुराण संहिता की रचना वेदव्यास ने की थी जिसका शिष्यों ने विस्तार किया. मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन और पहला पुराण होने के कारण भारत के इतिहास विशेष रूप से धार्मिक इतिहास के लिए प्रमाणिक ग्रन्थ बन जाता है. आधुनिक समय में अंग्रेज शोधकर्ता अंग्रेज पूंजीपतियों के फंड से और पोप के निर्देश पर ईसाईयत को पुष्ट करने के लिए कार्य करते हैं. उपनिवेशवादी समय में ये अंग्रेज शोधकर्ता बड़ी संख्या में भारत भेजे गये थे. इन्होने लालची ब्राह्मणों को पैसे से खरीदा, उनसे संस्कृत इत्यादि सीखा और ग्रंथो को उठाकर विदेश ले गये. इन्होने अपने अनुसार उनका अनुवाद किया, उससे लाभ लिया और दुष्प्रचार भी किया. आज भी उनका दुष्प्रचार जारी है.
अंग्रेज शोधकर्ता आदतन भारत और सनातन धर्म को नीचा दिखने के लिए अलग अलग तरह का प्रोपगेंडा करते रहते हैं. किताब लिख कर कभी दुष्प्रचार करते हैं कि आर्य बाहर से आये, तो कभी भारत का इतिहास 3000 ईसापूर्व में समेट देते हैं. इन धूर्त शोधकर्ताओं के अनुसार मत्स्य पुराण 200 ईसवी के लगभग में लिखी गई थी. इनकी अंत: प्रज्ञा इतनी भी नहीं है जिससे देख सकें कि कोई ग्रन्थ सौ-दो सौ साल में आस्था का विषय नहीं बन जाता. आदि शंकराचार्य ने प्रमाणिक ग्रन्थ मान कर ही मत्स्य पुराण का उद्धरण दिया है . वास्तव में मत्स्यपुराण की रचना ईसापूर्व 200-300 के लगभग में हुई होगी. सनातन धर्म के अनेक ग्रन्थों की तरह यह भी ईसायत के जन्म के पहले का ग्रन्थ है. ईसाई शोधकर्ताओं को सबसे बड़ी जलन हमारी प्राचीनता और उदात्त प्राचीन संस्कृति और ज्ञान से होती है. जिस समय भारत में गौतम बुध उपदेश कर रहे थे उस समय ग्रीक दार्शनिक सृष्टि आग से आई या पानी से आई, इस पर विचार विमर्श कर रहे थे. 600 ईसापूर्व के लगभग ज्यादातर पश्चिमी समाज असंस्कृत और जंगली था जबकि वैदिक काल से बुद्ध के काल तक भारत कई उदात्त जीवन जी चूका था. सत्य के बावत जो कुछ कहा जाना था वह कहा और लिखा जा चुका था. भारत चिन्तन और दर्शन की पराकाष्ठा को छू चूका था. पुराणों में यह कहा गया है कि कलियुग में मनुष्य की मेधा और बुद्धि कमजोर होगी इसलिए धर्म का उपदेश की सूक्ष्म रीति को छोड़ कर मोटी बुद्धि के अनुसार उपदेश करने के लिए पुराण लिखे गये. पुराण युग से पूर्व धर्म के आचार्यों ने सूक्ष्म सूत्रों में उपदेश किया था. एक छोटे सूत्र में सब कुछ कह देने की योग्यता चिन्तन, दर्शन और भाषा की महती उपलब्धि थी. श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्र सनातन धर्म की उपदेश परम्परा का वर्णन करता है –
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥
आश्चर्य यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥
कलियुग में ग्रहण करने की बुद्धि कमजोर है इसलिए जनता के लिए पुराण लिखे गये. विदेशी शोधकर्ता धर्म ग्रन्थों की ऐसी ही उदात्त बातों से ईर्ष्या करते हैं. उनका प्रोपगंडा मूलभूत रूप ईर्ष्या वशात होता है.

