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नंदा देवी राजजात यात्रा की कथा कई प्रकार की प्रचलित है. एक कथा कन्नौज के राजा से जुड़ी है जिसने गढवाल के राजा की बेटी बल्लभ से शादी किया था लेकिन बेटी को बारह साल उसके मायके नहीं भेजा. इस कारण नंदा देवी के कोप से कन्नौज के राजा के राज्य में अकाल पड़ गया. इस कोप और अकाल से मुक्ति के लिए राज पंडितों ने चार सींग वाले भेड़े के साथ नंदा देवी की यात्रा करने का सुझाव दिया था. राजा ने इस यात्रा को बारहवीं शताब्दी में सम्पन्न किया था, तभी से यह यात्रा शुरू हुई.

एक दूसरी कथा गढ़वाल की लड़की से भी जुड़ी है. इस कथा के अनुसार ससुराल वालों ने लड़की को मायके में हो रहे किसी उत्सव में नहीं भेजा. लड़की ने उत्सव में जाने की जिद कर लिया और ससुराल वालों से लड़ झगड़ कर मायके के लिए चल पड़ी. रास्ते में उस पर जंगली भैंसे ने हमला कर दिया. प्राण बचाने के लिए उसने खुद को पत्तो में छिपा लिया, लेकिन वहीं एक भेंड़ ने पत्ते चबा लिए जिससे वह भैसे को दिख पड़ी. भैसे ने उसे मार डाला. ससुराल पक्ष को यही लगता रहा कि लड़की अपने मायके में है. मायके पक्ष को लड़की ससुराल में हैं. यह जान कर दोनों पक्षों ने लड़की की लम्बे समय तक खोज नहीं की तब लड़की के मायके और ससुराल में कुछ अजीबोगरीब घटनाएं होने लगी. जैसे गाय के पेट से बकरी जन्म लेने लगी, फसलें खराब होने लगीं या फिर अलग फसल से अलग अनाज उत्पन्न होने लगा. सारा गाँव परेशान हो गया. एक दिन वह लड़की परिवार के सदस्यों के सपने में आई और बताया कि मेरे साथ ऐसी ऐसी घटना हुई और तुम लोगों ने मेरी खोज नहीं की इसलिए याद दिलाने के लिए मैंने ऐसा किया. यह यात्रा उसी की याद में की जाती है. यह वर्जन मूलभूत रूप से पार्वती की कथा से ही जुड़ी हुई.

एक बार मां नंदा अर्थात पार्वती अपने मायके आईं थी जिसके बाद 12 वर्षों तक वे अपने ससुराल नहीं जा पाईं. जब 12 वर्ष बाद मां नंदा को उनके ससुराल भेजा गया तो मायके वालों ने बड़े हर्षोल्लास के साथ माता को उनके ससुराल भेजा. तभी से हर 12 वर्ष बाद मां नंदा देवी राजजात का आयोजन किया जाता है. सातवीं शताब्दी में गढ़वाल राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से श्रीनंदा को बाहरवें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. इस यात्रा को गढवाल के राजा कनक पाल ने भव्य रूप प्रदान किया था. इस भव्य राजजात यात्रा में चौसिंगा खाडू (काले रंग का भेड़) श्रीनंदा की अगुवाई करता है. ऐसा माना जाता है कि यह भेड़ा हर बारह वर्ष में मनौती के बाद पैदा होता है.

राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाडू के पीठ पर फंची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है. खाडू पूरी यात्रा में सभी इसके पीछे पीछे चलते हैं. यात्रा का शुभारंभ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छंतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाडू) की विशेष पूजा की जाती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं. यह 19 दिनों की अवधि में यह यात्रा 280 किलोमीटर के उबड़-खाबड़ पहाड़ी इलाके से होकर गुजरता है.

उत्तराखंड में मां नंदा को अनेक रूपों में पूजा जाता है. यह पार्वती का साक्षात् रूप मानी जाती हैं. नंदादेवी यात्रा में अनेक लोगों ने देवी का साक्षात् दर्शन किया है. उत्तराखंड वासियों का माँ नंदा के साथ रिश्ता बहुत घरेलू है.  कोई उन्हें अपनी बेटी मानता है ,कोई बहिन मानता है. केदारखंड में उन्हें दारुमूर्तिसमासीना” कहा गया है. उनका स्वरूप काष्ठ से निर्मित किया जाता है विशेष रूप से नंदा महोत्सव में कदली वृक्ष पर नंदा की मूर्ति बनाई जाती . यह नंदा देवी वही है श्री कृष्ण की बहन जो नन्द के घर ज्येष्ठ बहन के रूप में उत्पन्न हुई थीं. उन्होंने असुरों का बध कर गढवाल के रूप कुंड में स्नान किया था और सौम्यता पाई थी फिर वे विंध्यांचल में प्रतिष्ठित हुईं.