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कलियुग में मनुस्मृति सबसे विवादित और घृणित ग्रन्थ है. यह सर्वविदित है. इस समय भारत में सबसे ज्यादा घृणा इस ग्रन्थ से ही किया जाता है और सबसे ज्यादा हमला इस ग्रन्थ पर ही किया जाता है. दलित वर्गों में अम्बेडकर के कारण यह घृणा है और स्त्रियों में फेमिनिज्म के कारण यह घृणा है. यदि इस ग्रन्थ में शुद्र और स्त्री के प्रति कुछ विधि-निषेध न हो और शूद्रों के प्रति दमनकारी बातें न हों और उसे निकाल दिया जाय, तो यह सभी स्मृतियों में श्रेष्ठ धर्मशास्त्र है. मनुस्मृति हिन्दू बाबाओं और साधु महात्माओं के लौकिक धर्म विमर्श के केंद्र में रहता है क्योंकि इसे सबसे उत्कृष्ट धर्मशास्त्र माना गया है. इस धर्मग्रन्थ का आधार चातुर्वर्ण्य व्यवस्था है जिसकी उत्पत्ति दैवी बताई गई है. इस विषय पर विमर्श हो सकता है और इसको चनौती दी जा सकती है. लेकिन प्रवृत्ति मार्ग के अंतर्गत हिन्दू धर्म-कर्म, हिन्दू नीति और सामाजिक व्यवस्था के बावत यह सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है.

आध्यात्म इस लौकिक धर्मशास्त्र से परे की चीज है. मनुस्मृति इस बात को स्पष्ट रूप से कहती है कि धर्म जिज्ञासा करने वालों के लिए एकमात्र प्रमाण श्रुति है “धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणे परमं श्रुति:”. जिसे आत्मज्ञान और ईश्वर प्राप्ति ही परम श्रेय है उसके लिए कर्म से सम्बन्धित इस ग्रन्थ का कोई उपयोग नहीं है. यह कारण है कि सन्यास धर्म में मनु महाराज के सभी आचार का “स्वाहा” बोलकर हवन कर देते हैं. ज्ञानी के लिए कोई कर्म विहित नहीं है.
ज्ञानेनैवापरे विप्रा यजन्त्येतैर्मखैः सदा ।
ज्ञानमूलां क्रियामेषां पश्यन्तो ज्ञानचक्षुषा ॥
ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण ज्ञान चक्षु से यज्ञादि क्रियाओं को ज्ञानमूलक जानकर ज्ञान के द्वारा ही पंचमहायज्ञों का फल पा लेते हैं. भगवद्गीता स्मृति में भी यही बात कही गई है “दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।” अन्य योगी लोग भगवदर्पणरूप यज्ञ का ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगीलोग ब्रह्मरूप अग्निमें विचाररूप यज्ञके द्वारा ही जीवात्मारूप यज्ञका हवन करते हैं. अश्वमेध यज्ञ की व्याख्या में आचार्य सुरेश्वराचार्य ने भी कहा है कि जो अश्वमेध को जानता है वह उसके फल को प्राप्त कर लेता है क्योंकि परमात्मा का भी ज्ञान ही तप है. सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान ने ज्ञान रूप में वेद को उत्पन्न किया, जिससे कर्म का प्राकट्य हुआ “कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।”. ज्ञान से ही परमात्मा सृजन और सम्हार दोनों ही करता है.

लेकिन जहाँ तक लोक का प्रश्न है, उसमे मनुस्मृति सभी स्मृतियों में सर्वोत्कृष्ट है और सर्वमान्य है. भगवद्गीता में भी कर्मयोग के प्रसंग में इसी मनु का वर्णन किया गया है. मनुस्मृति का विषय धर्म जिज्ञासा नहीं है, इसका विषय है कि मनुष्य का सामाजिक-पारिवारिक जीवन कैसे धर्म पूर्वक, नैतिक तरीके चलेगा जिससे उसका उत्थान होकर उसका आत्यंतिक कल्याण हो सके. धर्म शास्त्र की परिभाषा मनुस्मृति में ही दी गई है “श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृति” वेद जिसका अंत भाग उपनिषद हैं उसे श्रुति कहा गया है, स्मृति को धर्म शास्त्र कहा गया है. मनुस्मृति में पुराण को धर्मशास्त्र में कोई प्रमाण नहीं माना गया है. धर्म के बावत मनुस्मृति अकाट्य बात कहती है कि युगों में धर्म का ह्रास अधर्म पूर्व अर्थात अनीति से धन-विद्यादि के अर्जन द्वारा होता है, धर्म का बल घटता है. चोरी, मिथ्या और कपट से धर्म के एक एक चरण का ह्रास होता है.
“इतरेष्वागमाद्धर्म: पाद्स्त्ववरोपित:
चौरीकानृत मायामिर्धश्चापैति पादश:
धर्म का यही अर्थ भगवद्गीता में भी पाया जाता है और इसी धर्म के ह्रास के कारण भगवान धर्म की स्थापना के लिए अवतरित होते हैं. धर्म का ह्रास के प्रमुख कारण अनीति, असत्य, मिथ्याचार इत्यादि ही हैं अर्थात जब जीवन सत्य स्खलित हो जाता है तब धर्म की हानि होती है. मनुस्मृति में ब्राह्मण पर सबसे ज्यादा विधि निषेध लगाये गये हैं. मनु स्मृति में ही कहा गया कि आचार ही सभी तपस्याओं का मूल है, अचार ही परम धर्म है “आचार: परमो धर्म: श्रुत्युक्त: स्मार्त एव च” जिस व्यक्ति में नैतिक आचार नहीं है उसका तप फलदायक नहीं होता. ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले मनु कहते हैं कि जो ब्राह्मण दो संध्या नहीं करता वह शुद्र के समान है, उसे सभी धर्मकर्म से वहिष्कृत कर देना चाहिए. मनु यह भी कहते हैं –
“आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेद फलमश्नुते ” आचारविहीन ब्राह्मण को वेद का फल प्राप्त नहीं होता. ब्राह्मण से ही सबसे ज्यादा आचारवान होने की अपेक्षा की जाती है क्योंकि वह शिक्षा प्रदान करता है और धर्म को धारण करता है. ब्राह्मण धर्म को धारण करता है क्योंकि ब्राह्मण और अग्नि में कोई अंतर नहीं है. ब्राह्मण और अग्नि दोनों ही प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुए और दोनों इसीलिए पवित्र हैं. ब्राह्मण के मुख से ही देवता हव्य ग्रहण करते हैं और पितर कव्य ग्रहण करते हैं. ब्राह्मण को ब्रह्मा जी ने धर्म के लिए ही उत्पन्न किया है इसलिए धर्म को धारण करना उसका कर्तव्य है. यह कारण है कि सबसे ज्यादा विधि निषेध ब्राह्मण पर ही लागू किया गया है.

नैतिक मूल्य -धर्म, सत्य, अहिंसा, अचौर्य इत्यादि सबके लिए विहित है, नैतिक आचरण सबके लिए है क्योंकि यही धर्म का आधार है. मनुष्य के हर कर्म में सत्य की प्रतिष्ठा होनी चाहिए तभी उसका आत्यंतिक कल्याण सम्भव है. मनुस्मृति का यह श्लोक सिर्फ ब्राह्मण पर ही लागू नहीं होता, सब पर लागू होता है-
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांश्च ।
न विप्रदुष्ट स्वभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित।।
दुष्टात्मा (विप्र हो या कोई वर्ण का मनुष्य) के वेदाध्ययन, दान, यज्ञ, नियम और तप , ये सभी फलसिद्धि को प्राप्त नहीं होते.
यह एक उत्कृष्ट बात है. जिस मनुष्य में सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अघृणा, नैतिकता इत्यादि नहीं है उसका धर्म कैसे सफल हो सकता है? जिस आत्मा में यह प्रतिष्ठित हैं यदि उसी पर ऐसी अज्ञानता और अविद्या का मैल जमा हो तो फल सिद्धि कैसे हो सकती है. यह वर्तमान समय में प्रचारित है कि मनुस्मृति स्त्रीविरोधी है क्योकि सामाजिक-पारिवारिक उत्तरदायित्वों के बावत उसकी भूमिका न केवल गौड़ है बल्कि वह एक पुत्रोत्पत्ति का माध्यम मात्र है. स्त्री को वेद, गायत्री और सन्यास का अधिकार नहीं है. मनु के अनुसार- स्त्रियों का वैदिक विवाह संस्कार ही यज्ञोपवीत है. पति की सेवा ही गुरुकुल निवास है और घर का काम ही उनका सायं प्रातः होम है. लेकिन मनु ने स्त्री रूप में माता को आचार्य, गुरु और पिता से हजार गुनी श्रेष्ठ बताया है. स्त्री काम का घर मानी जाती है इसलिए मनु विशेष सावधानी का जिक्र करते हैं और कहते हैं कि गुरु घर में विद्याध्यायन करने वाला शिष्य कभी गुरु पत्नी के बाल न संवारे, उबटन न लगाये अर्थात ऐसे श्रृंगार सम्बन्धी कार्य न करे और न गुरु पत्नी ही शिष्य को नहलाये या शरीर दबाये या इस प्रकार के कोई कार्य करे. यह कार्य माता कर सकती है लेकिन गुरु पत्नी नहीं कर सकती. फेमिनिस्ट इसमें भी दोष देखती हैं. मनु स्पष्ट कहते हैं –
“स्वभाव एष नारीणाम नाराणामिह दूषणम” पुरुष को दूषित करना नारियों का स्वभाव है इसलिए ज्ञानी पुरुष युवती के सम्बन्ध में कभी असावधान नहीं होते. कलियुग में गुरु स्त्री लेकर घूम रहे हैं बल्कि उससे भी ऊपर उठ गये हैं और गुप्त गोपन करते हैं. दूसरी तरफ यह भी कहा है मनु ने कि यदि स्त्री अथवा शुद्र कोई धर्म कार्य करते हैं जो शास्त्रविहित है तो ब्रह्मचारी को मन लगे तो उसे करना चाहिए.
श्रद्धान: शुभां विद्यामाददीतावरादपि ।
अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ।।
विद्या, उत्तम वचन, शल्प कला, रत्न, स्त्री जहाँ से मिले वहां से लेना चाहिए. श्रद्धावान पुरुष नीच से भी अच्छी विद्या ग्रहण कर ले, चांडाल से भी परम धर्म लेने में दोष नहीं और नीच कुल से स्त्री लेने में भी दोष नहीं होता, परन्तु द्विज को यह वर्जित है. इस प्रकार मनु स्त्रियों को श्रेष्ठ और पवित्र मानते हैं.
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः.।
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः ।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ।
जिस कुल में स्त्रियों की पूजा होती है, उन्हें सम्मान मिलता है उस घर में देवता रहते हैं. जिस कुल की बहु-बेटियां क्लेश भोगती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है. सम्मानित न होने पर बहु-बेटियां जिस घर को कोसती हैं, वे घर अभिचार से नष्ट होकर सर्वथा नाश को प्राप्त हो जाते हैं. स्त्री देवी रूपा है इसलिए उसमे यह शक्ति नैसर्गिक रूप से विद्यमान है.