
मनुष्य के लिए बिस्तरसुख सबसे बड़ी चीज है क्योकि यह लौकिक सुख का हेतु है तथा इससे उसकी लौकिक मुक्ति होती है. इससे मनुष्य वह पितृ ऋण से भी मुक्त होता है. यदि पति-पत्नी के बीच कलह है, वैमनस्य बढ़ रहा है या जन्मकुंड़ली में दाम्पत्य सुख का योग कम है अथवा जीवनसाथी कुमार्ग का आश्रय ले रहा है या स्त्री-पुरुष में किसी को विस्तर सुख में विघ्न होता है तो अशून्य शयन व्रत करना चाहिए. भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा था – ब्रह्मन् ! इस प्रकार जो पुरुष श्रीहरि के अशून्यशयन व्रतका अनुष्ठान करता है, उसे कभी पत्नी वियोग नहीं होता. जो शादीशुदा अथवा विधवा या विदुर नर नारी नारायण परायण होकर कृपणता छोड़कर इसका अनुष्ठान करते हैं, वे न तो कभी शोक से दुःखी होते हैं और न उनका रूप ही विकृत होता है.
अशून्यशयन व्रत तब किया जाता है जब चातुर्मास में प्रजापति शयन करने चले जाते हैं. श्रावण-भाद्रपद-आश्विन-कार्तिक इन चतुर्मास के दौरान कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को पड़ने वाले व्रत का नाम अशून्य शयन व्रत है. यह तब तक किया जाता है जब तक सूर्य देव वृश्चिक राशि पर रहते हैं. चतुर्मास के नियमों का पालन करते हुए यह व्रत करने से मनुष्य का शैया सुख बना रहता है. चार महीनों में शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि के मात्र चार ही व्रत हैं (चारों व्रत क्रमशः करने अनिवार्य हैं. चतुर्मास की चन्द्रोदय व्यापिनी द्वितीया के दिन यह व्रत किया जाता है. मत्स्य पुराण के अनुसार विधि –
श्रीवत्सधारिन् श्रीकान्त श्रीधामन् श्रीपतेऽव्यय।
गार्हस्थ्यं मा प्रणाशं मे यातु धर्मार्थकामदम् ॥
अग्नयो मा प्रणश्यन्तु देवताः पुरुषोत्तम ।
पितरो मा प्रणश्यन्तु मास्तु दाम्पत्यभेदनम् ॥
लक्ष्म्या वियुज्यते देव न कदाचिद् यथा भवान्।
तथा कलत्रसम्बन्धो देव मा मे वियुज्यताम् ॥
लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा।
शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथैव मधुसूदन॥भगवान का पूजन करने के बाद वाद्य यंत्रों के माङ्गलिक शब्दों के साथ-साथ भगवान् विष्णु के नामों का कीर्तन करना चाहिये या घण्टा का शब्द कराना चाहिये. पूजन में प्रार्थना करना चाहिए – हे जगन्निवास ! हे विष्णु ! जिस प्रकार आप लक्ष्मी से कभी अलग नहीं होते, उसी प्रकार आपकी कृपा से हमारी शैया भी कभी शून्य न हो.
हे अच्युत ! आपकी शैया कभी लक्ष्मी से शून्य नहीं होती, उसी सत्य के प्रभाव से हमारे विस्तर सुख के नाश का अवसर न आये और हमारा स्त्री से वियोग न हो.
इस प्रकार भगवान् लक्ष्मी-गोविन्द की पूजा करके रात में एक बार तेल और क्षार नमक से रहित (घी और सेन्धा नमक से युक्त) अन्न का भोजन करे. ऐसा भोजन तब-तक करे, जबतक इस व्रत की चार व्रत पूरे न हो जाएँ अर्थात चार महीने ऐसा करना चाहिए.
व्रत पूर्ण करने के बाद प्रातः काल होने पर एक विलक्षण शय्या का भी दान करने का विधान है. वह शैय्या गद्दा, श्वेत चादर और विश्रामोपयोगी तकिया आदि से सुशोभित होना चाहिए. उसपर भगवान् लक्ष्मीविष्णु की स्वर्णादि की प्रतिमा स्थापित करके करना चाहिए. उसके निकट दीपक, अन्नके पात्र, पादुका (जूते), उपानह (चप्पल), छत्र (छाता), चामर (पंखा), आसन आदि रखे होने चाहिए. वह अभीष्ट सामग्रियों से युक्त हो, उसपर श्वेत पुष्प बिखेरे गये हों, वह नाना प्रकार के ऋतुफलों से सम्पन्न हो तथा अपनी शक्ति के अनुसार आभूषण और अन्न आदि से समन्वित हो. यह शय्या ऐसे ब्राह्मणको देनी चाहिये, जिसका कोई अङ्ग विकृत न हो तथा जो भगवान का भक्त हो और शास्त्रों का ज्ञाता हो. फिर उस शय्यापर द्विजदम्पति को बैठाकर विधान के अनुसार उन्हें अलंकृत करे. ब्राह्मण की पत्नी को भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थों से युक्त बर्तन दान करे और ब्राह्मण को सभी उपकरणों से युक्त देवाधिदेव लक्ष्मीनारायण भगवान की स्वर्णमयी प्रतिमा जलपूर्ण घट के साथ निवेदित करे। (पान के पत्ते आदि में भगवान की प्रतिमा स्थापित करके घट में ऐसा रखें की वह घट के जल में तैरती रहे और दान करें।) तत्पश्चात् ब्राह्मणको विदा कर व्रत समाप्त करे .