भगवद्गीता का वर्णसंकरता विषय पर कृष्ण-अर्जुन का सम्वाद पहले अध्याय में मिलता हैं. भगवद्गीता का उपदेश यही से प्रारम्भ होता है. भगवद्गीता पितृ-पूजा को अनार्य मानती है और कहती है यह निम्न कोटि के छुद्र लोग करते हैं. गौरतलब है कि भगवद्गीता को प्रस्थानत्रयी में स्थान प्राप्त है जिसका मतलब है कि यह ग्रन्थ भी कुछ आध्यात्मिक विषयों पर पूर्व में जिसपर विश्वास किया गया था उससे प्रस्थान है. भगवद्गीता की भाषा तो वैदिक है लेकिन यह वेदों के पितृपूजा या पिंडदान इत्यादि कर्मो को अनार्य कर्म कह ख़ारिज करती है. “यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।” “पितरो की पूजा करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं अर्थात उनका पतन होता है” ऐसा कहकर भगवद्गीता उसे निकृष्ट कोटि में मानती हैं. यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि सनातन मार्ग दो ही हैं -एक पितृमार्ग और दूसरा ज्ञानयोग या सांख्ययोग का मार्ग. भगवद्गीता पहले मार्ग को जीवन में प्रभावी होने को पतन मानती है क्योंकि इससे परलोक की सिद्धि नहीं होती. श्री कृष्ण यह भी कहते हैं कुलधर्म कुछ नहीं होता और वर्णसंकरता बेकार की बात है. कृष्ण के परिवार में ही वर्णसंकरता थी, उन्होंने रीछ जाति में शादी की थी और उनके पोते अनिरुद्ध की शादी दैत्य कन्या से हुई थी. भगवद्गीता का यह उपदेश वेदों से ही प्रस्थान है. रामानुजाचार्य ने भाष्य में लिखा है कि इससे स्वर्ग नहीं मिलता जिसे भौतिक सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है. उन्होंने स्पष्ट लिखा है “अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं..” वेद और संहिताओं में पितृमार्ग अर्थात कुलधर्म या प्रवृत्तिमार्ग स्वर्ग की प्राप्ति का मध्यम है. वैष्णव दर्शन में भगवान कुल-विशेष और वंश को देख कर ही अवतरित होते हैं. जबकि भगवान इस प्रकार की बात करने वाले को अनार्य कहते हैं. महाभारत इसी विषय को लेकर सम्पन्न हुआ था और दुनिया का पहला ऐसा युद्ध था जिसमे व्यापक पैमाने पर पितृ-हत्या हुई (It was first large scale patricide). कृष्ण ने केवल महाभारत द्वारा ही पितृ-मार्गी अन्धो का विनाश नहीं किया, उन्होंने अपने वृष्णि वंश का भी नाश किया और जाते जाते अपना भी सारा नाश करके गये. उनकी रानियाँ लूट गईं थी, जो बच गई वो जंगल चली गई थीं. कृष्ण ने साफ कहा है भगवद्गीता में कि “मैं महाविनाश हूँ. मैं ही काल हूँ”.
महाभारत में दो लाइन है –
1- पितामह Forefathers की लाइन अर्थात पितरों की लाइन ( मोहग्रस्त, अधर्म करने वाले पापी)
2- भगवान की लाइन अर्थात आध्यात्मिक लाइन coming from Bhagawan himself.
धर्म क्षेत्र अर्थात भारत के कुरु क्षेत्र नामक स्थान में इन दोनों में दुनिया का पहला विश्व युद्ध हुआ. इस युद्ध में पितृमार्ग वाले सभी मारे गये क्योंकि महाभारत में क्रूरता, नैतिक पतन और अनाचार इनके द्वारा ही किया गया था. प्रमुख रूप से कुलवधू का भरी सभा में बलात्कार पितृ-मार्गियों के आत्यंतिक मोह के कारण ही हुआ. भगवद्गीता के भगवान सर्वश्रेष्ठ ज्ञान मार्ग के प्रवक्ता हैं, उनका उपदेश इस अभिनिवेश और मोह की निवृत्ति के लिए हुआ है. इसलिए जब अर्जुन कहता है –
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।1.42।
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन- (कुलघातियों-) के पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।
तब भगवान इसका उत्तर ही नहीं देते और जब उपदेश करते हैं तो कहते हैं “यह अनार्यों द्वारा सेवित है और हेय है. इससे न स्वर्ग की प्राप्ति होती है और न कीर्ति ही प्राप्त होती है.” अंदर के पृष्ठों में भी जब उपासना का प्रसंग आता है तो इसे निकृष्ट भूतादि पूजा के अंतर्गत गिनते हैं.
अनेक भाष्यकारों ने इन श्लोको पर भाष्य ही नहीं किया. रामकृष्ण मिशन के स्वामी अभेदानंद के अनुसार आदि शंकराचार्य ने भी इस पर भाष्य नहीं किया था जबकि गीता प्रेस ने भाष्य अनुवाद छापा है. हमने यह छोटा सा एक नोट लिख दिया है और कुछ ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं है.
भगवद्गीता के इन श्लोकों को ध्यान से पढ़ें-
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।1.37।।
अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।
यद्यपि लोभ के कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये (दुर्योधन आदि) कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को और मित्रों के साथ द्वेष करने से होनेवाले पाप को नहीं देखते, (तो भी) हे जनार्दन! कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को ठीक-ठीक जाननेवाले हमलोग इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों न करें?
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।1.40।।
कुल का क्षय होने पर सदा से चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होनेपर (बचे हुए) सम्पूर्ण कुल को अधर्म दबा लेता है।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।।1.41।।
हे कृष्ण! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं; (और) हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं।
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।1.42।
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन- (कुलघातियों-) के पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।1.43।।
इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषोंसे कुलघातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।1.44।।
हे जनार्दन! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का बहुत काल तक नरकों में वापस होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं.
यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिये तैयार हो गये हैं!
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।
अगर ये हाथों में शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग युद्धभूमि में सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मुझ को मार भी दें, तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा।
ऐसा कहकर अर्जुन बैठ जाता है ..
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।1.47।।
संजय बोले – ऐसा कहकर शोकाकुल मनवाले अर्जुन बाणसहित धनुष का त्याग करके युद्धभूमि में रथके मध्यभाग में बैठ गये।
भगवान ने अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर ही नहीं दिया और कहा कि यह मूर्खो वाली भाषा बोल रहे हो, यह भाषा अनार्य बोलते हैं. आर्य लोग ऐसा नहीं सोचते .
श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।
श्रीभगवान् बोले – हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3।
हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकताको मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारेमें यह उचित नहीं है। हे परंतप ! हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके युद्धके लिये खड़े हो जाओ।

