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हिन्दू धर्म बहुत बृहद है इसलिए इसके सम्प्रदायों का कोई ओर छोर नहीं है. सभी पांच प्रमुख सम्प्रदायों शैव सम्प्रदाय, वैष्णव सम्प्रदाय, शाक्त सम्प्रदाय, गाणपत्य सम्प्रदाय और सौर सम्प्रदाय में वैष्णव सबसे आक्रामक और बेहतरीन प्रचारक रहे हैं. विशेष रूप से मध्ययुग के पौराणिक काल में वैष्णवों ने उत्तर भारत में इतना आक्रामक प्रचार किया कि सबसे प्राचीन और प्रभावशाली शैव सम्प्रदाय कमोवेश खत्म सा हो गया. वैष्णवों के प्रचार के कारण ही वैष्णवों का प्रभाव अन्यों की तुलना में हिन्दू समाज पर ज्यादा है. यह इतिहास का विषय है इसलिए इसपर कभी अलग से प्रकाश डाला जायेगा.

फिलहाल संक्षिप्त में यहाँ स्मार्त और वैष्णव का क्या पंगा है यह समझ लेते हैं. ज्यादातर हिन्दू स्मार्त व वैष्णव के अंतर को नहीं समझते. वैष्णव सम्प्रदाय के बारे में भी लोग कम ही जानते हैं. स्मार्त का अर्थ होता है जो स्मृतियों का अनुगमन करते हैं. श्रुति और स्मृतियों में बताये धर्म का पालन अपनी वैदिक परम्परा से करते हैं, जबकि वैष्णव का अर्थ है जो वैष्णव सम्प्रदाय की परम्परा पर चलते हैं. अब सवाल है कि क्या वैष्णव स्मार्त नहीं हैं? वैष्णव भी श्रुति स्मृतियों को मानते हैं लेकिन वैष्णव सम्प्रदाय की आगमिक परम्परा के अनुसार ही उसको जगह देते हैं. इसे प्रमुखता नहीं देते हैं. स्मार्त लोग हिन्दू धर्म के सभी देवी देवता को मानते हैं जबकि वैष्णव लोग अपने सम्प्रदाय को प्रमुखता देते हैं. वैष्णव वे हैं जो वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित होते हैं और सम्प्रदाय के चिन्हों को धारण करते हैं, जबकि स्मार्त उन्हें धारण नहीं करते. इस भेद के कारण वैष्णवों ने स्वयं को इनसे अलग कर लिया. सम्प्रदायिक होने के कारण उनके व्रत-उपवासों में भी अंतर हो गया. स्मार्त लोग पंचदेवोपासक होते हैं इसलिए वैष्णव आचार और चर्या को बिना दीक्षित हुए नहीं अपना सकते हैं. इसी प्रकार शैव सम्प्रदाय के चिन्ह और आचार वैष्णवों से अलग हैं और उनके आचार को स्मार्त लोग बिना दीक्षित हुए नहीं अपना सकते हैं. हर सम्प्रदाय के अपने चिन्ह और आचार हैं जिनको स्मार्त हिन्दू बिना दीक्षित हुए नहीं धारण कर सकता है.

इस प्रकार ‘वैष्णव’ वे हैं जो किसी विशेष वैष्णव संप्रदाय के गुरु से दीक्षा लेकर कंठी-तुलसी माला, तिलक आदि धारण करते हुए तप्त मुद्रा से सम्प्रदाय के अनुसार विष्णु के शंख-चक्र इत्यादि अंकित करवाते हैं. वैष्णव सम्प्रदाय अनेक हैं तदनुसार उनमे भी भेद है अर्थात उनके तिलक इत्यादि अलग होते हैं, हलांकि वे सभी ‘वैष्णव’ के अंतर्गत आते हैं. वैष्णव गृहस्थ धर्म को छोड़कर वैष्णव मत के अनुसार अपना जीवन जीते हैं. वैष्णव पंचदेवोपासना नहीं करते. इनमे ज्यादातर संत और सन्यासी होते हैं.

‘स्मार्त’- वे सभी गृहस्थ हैं जो श्रुति स्मृतियों के अनुसार धर्म पर चलते हैं, वेद-पुराणों के पाठक होते हैं, आस्तिक और पंच देवों (गणेश, विष्णु,‍ शिव, सूर्य व दुर्गा) के उपासक होते हैं. प्राचीनकाल में अलग-अलग देवता को मानने वाले संप्रदाय अलग-अलग थे. आदिशंकराचार्य द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि सभी देवता ब्रह्मस्वरूप हैं तथा जन साधारण ने उनके द्वारा बतलाए गए मार्ग को अंगीकार कर लिया तथा स्मार्त कहलाये.

वैष्णव धर्म या वैष्णव सम्प्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म है. इसके अंतर्गत सभी सम्प्रदाय आ जाते हैं जो विष्णु और विष्णु के अवतारों की पूजा करते हैं. रामायण पंथी भी वैष्णव हैं. वैष्णव पांचरात्र मत को मानने वाले होते हैं और वैष्णव आगम पर चलते हैं. ऐतिहासिक रूप से वैष्णवों के दो मोटे मोटे भेद -पांचरात्र और बैखानस थे, जिसमें कालान्तर में दो और जुड़ गये जिन्हें प्रतिष्ठासार और विज्ञानललिता नाम से जाना जाता हैं. ये सभी छद्म वैदिक मत हैं और प्रमुख रूप से तन्त्र मार्ग का अनुगमन करते हैं. इनकी साधना में तन्त्र के अनुसार ही विभाजन है – ज्ञान, योग, क्रिया और चर्या. इन्हीं चार विषयों को इनके ग्रन्थ समाहित करते हैं. इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या ‘भगवत’ कहा गया है. इन्हीं भगवत के उपासक भागवत कहलाते हैं. महाभारत’के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है. पांचरात्र बहुत बृहद है. शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा. यह वैष्णव तन्त्र है जिसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का ‘वर्णन किया गया है. पांचरात्र आगम के ‘ईश्वरसंहिता’, ‘पाद्मतन्त्र’, ‘विष्णुसंहिता’ ‘अहिर्बुध्न्य संहिता’ सात्वत संहिता और ‘परमसंहिता’ इत्यादि ग्रन्थ हैं. इस धर्म के ‘नारायणीय’, ऐकान्तिक’ और ‘सात्वत’ नाम भी प्रचलित है. आदि शंकराचार्य ने इन्हें अवैदिक कहा है और ब्रह्मसूत्र भाष्य में इनकी आलोचना की है.

वैष्णव सम्प्रदायों का मूल चरित्र आगमिक और पौराणिक है इस कारण ये निसंदेह अवैदिक हैं. पुराणों में तन्त्र का समावेश दक्षिण भारत के इन्हीं आगमिक मत को मानने वाले प्रमुख रूप से तांत्रिक वैष्णव ब्राह्मणों के कारण हुआ. भागवत पुराण यदपि की वाह्य रूप से वैदिक दिखता है और इस ढंग से लिखा गया है कि बाहर से वैदिक दिखे, लेकिन मूलभूत रूप से यह वैष्णव तन्त्र का ग्रन्थ है. भागवत की रासलीला वैष्णव तन्त्र दर्शन का निकष है. वैष्णवों ने अपनी इस गुप्त आगमिक उपासना के कारण ही खुद को स्मार्त हिन्दुओं से अलग कर लिया. पंचांगों में वैष्णव व्रत और पर्वों जैसे एकादशी व्रत, जन्माष्टमी व्रत को स्मार्त जनों के लिए पहले दिन और वैष्णव लोगों के लिए दूसरे दिन बताया जाने लगा. अब एकादशी तिथि का विभाजन तो नहीं हो सकता लेकिन उसी में वैष्णवों ने उपाय कर लिया. दशमी तिथि का मान 55 घटी से ज्यादा हो तो वैष्णव जन द्वादशी तिथि को व्रत रखते हैं अन्यथा एकादशी को ही रखते है. इसी तरह स्मार्त हिन्दू अर्द्धरात्रि को अष्टमी पड़ रही हो तो उसी दिन जन्माष्टमी मनाते हैं. जबकि वैष्णवजन उदया तिथि को जन्माष्टमी मनाते हैं एवं व्रत भी उसी दिन रखते हैं.