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माता दुर्गा और काली जी की पूजा अनादि काल से भारत वर्ष में हो रही है. शक्ति पूजा सबसे प्राचीन है. हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदाय शैव, वैष्णव, गाणपत्य, सौरी मूलभूत रूप से शक्ति पूजक ही हैं. शक्तिपूजा सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि सबको शक्ति की ही कामना रहती है चाहे वो ज्ञान शक्ति हो, राज शक्ति हो, धन शक्ति हो, वाक् शक्ति हो, बल हो, वीर्य हो, मायावी शक्ति हो, मारण , मोहन, वशीकरण करने की शक्ति हो या कोई भी शक्ति हो. हर प्रकार से मनुष्य शक्ति की ही पूजा करता है और उनकी ही कामना करता है. माता त्रिगुणात्मिका हैं और त्रिगुणातीत भी हैं. ऋषिगण उनके परारूप की उपासना करते हैं. परन्तु देव, मनुष्य, दानव, यक्ष, गन्धर्व इत्यादि उनकी त्रिगुणमयी उपासना करते हैं. जिन जिन भावों से मनुष्य उनकी उपासना करता है, उन उन भावों द्वारा उन्हें प्राप्त करता है. सत्वगुण का भाव अलग है, रजोगुण का भाव अलग है, तमोगुण का भाव अलग है इसलिए सत्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी पूजा का फल अलग अलग है. देवी भागवत में दुर्गा जी की सत्वगुणी पूजा ही सर्वश्रेष्ठ बताई गई है. भगवद्गीता में भी सत्वगुणी पूजा द्वारा ही ईशसिद्धि कही गई है. भगवती के गुणों के भेद से ही काली, तारा इत्यादि दश महाविद्याएँ हैं. इन विद्याओं की उपासना मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार करता है. रावण शक्ति का परम उपासक था. भागवत में कहा गया है-

देवीं त्रैलोक्यजननीं सम्प्रार्थ्यं दशकंधर:।
तस्या: प्रसादात्तत्रैलोक्यविजयी सम्भूत्परा ।

शास्त्रों में बताया गया है कि रावण ने असुरी विधि से तमोगुणी-रजोगुणी उपासना की थी इसलिए वह मायावी हो गया, परन्तु सत्वगुण ऊपर स्थित है इसलिए राम द्वारा उसका वध हुआ. सत्वगुण ऊपर उठाता है “ऊर्ध्वं गच्छति सात्विका:” ऐसा भगवद्गीता में कहा गया है. इसी गुण से दैवी सम्पद प्राप्त होती है जिसके द्वारा देवदर्शन होता है. देवी की रजोगुणी और तमोगुणी उपासना प्रवृति के अनुसार अलग अलग मनुष्य करते हैं. मनुष्य भी त्रिगुणों के कारण स्वभावनुसार देवता, मनुष्य और राक्षस कोटि में रखे गये हैं. सभी अपने स्वभाव के अनुसार देवी की उपासना करते हैं. देवी ने सबको उपासना का अधिकार दिया है. अपने स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य क्रमश: आगे बढ़ता है और अंत में संसिद्धि प्राप्त करता है.

दुर्गाशप्तशती का पाठ हर घर में होता है. इसमें राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य की कथा है. राजा सुरथ का राज्य चला गया है और दुश्मन से पीड़ित होकर उसे अपने देश से भागना पड़ा था, जबकि वैश्य का दुःख अलग था. उसके पत्नी, पुत्र, वधु इत्यादि ने उसकी सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया और उसे घर से बाहर निकाल दिया. दोनों ही पीड़ित मेधा ऋषि के आश्रम पहुंचे और उनसे अपने दुःख का कारण पूछा. मेधा ऋषि ने उन्हें उपदेश किया और महामाया के स्वरूप का वर्णन किया. उन्होंने कहा -“महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोहते जगत ” यह संसार उनके द्वारा मोहित होकर ही जरामरण रूपी भवचक्र में घूमता रहता है. मेधा ऋषि ने कथा कहने के बाद उन्हें देवी की पूजा और आराधना में नियुक्त किया. राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने नदी तट पर निराहार रहते हुए देवी की तीन वर्ष तक पूजा की और उन्होंने अपने रक्त की बलि भी प्रदान किया.

निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ ।
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रास्रुगुक्षितं ।।

उन्होंने रक्त से प्रोक्षित बलि प्रदान कर उनकी उपासना की और देवी को प्रसन्न किया. इससे यह स्पष्ट है कि बलि द्वारा भी देवी की पूजा शास्त्रसम्मत है. बलि की प्रथा अति प्राचीन है और आज भी हिन्दू मन्दिरों में बलि होती है .