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प्रारब्ध मनुष्य के अपने ही कर्मों से निर्मित होता है और तदनुकूल ही उसका अच्छा बुरा फल होता है. कर्म रेखा भाग्य से ही बनती है और भाग्य रेखा पुन: कर्म से बनती है. यह शनि-गुरु का विशेष सम्बन्ध है. यदि प्रारब्ध का फल दुःख और कष्ट के रूप में प्राप्त होता है तो यदि उसका आध्यात्म में विनियोग कर दिया जाय तो उसका कष्ट निवृत्त हो जाता है या कम हो जाता है. यदि बुरे प्रारब्ध का फल भोग कोई ग्रह करा रहा है तो उसके विपरीत शुभ कर्म द्वारा उसका ध्वंश किया जा सकता है. यह हिन्दू दृष्टि है. यदि इसको नहीं माना जाय तो सनातन धर्म का सारा मुक्ति उद्योग खत्म हो जाएगा.

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।।
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है.
परीक्षित की कथा में भी यह सन्दर्भ आता है. मनुष्य का जन्म और मृत्यु दोनों उसके प्रारब्ध कर्मों का फल है. मनुष्य को आयु उसके कर्मों द्वारा उसे प्राप्त होती है. कोई अल्पायु और कोई दीर्घायु होता है. ब्राह्मण का श्राप भी परीक्षित के पूर्व जन्म के कर्मों का फल था जिसका विपाक होना था और यह उनकी मुक्ति का हेतु भी बनने वाला था. यही परीक्षित के साथ घटित हुआ. उस समय शुकदेव आदि त्रिकालदर्शी सिद्ध ऋषि थे जो परीक्षित की रक्षा करने में सर्वथा सक्षम थे लेकिन श्राप से जुड़ा जो मुक्ति रूप फल था वह उन्हें नहीं मिलता. उन्हें यह ज्ञान था इसलिए उन्होंने भी कोई यत्न नहीं किया. कथा से ज्योतिषियों को यह निर्देश भी प्राप्त होता है कि जब किसी जातक की मारक दशा अंतिम हो और आयुष्य शेष न हो, तो उन्हें कोई ज्योतिषीय उपाय नहीं बताना चाहिए. उन्हें वही बताना चाहिए जो परीक्षित को शुकदेव ने बताया. उस समय को ईश्वर में लगा देना चाहिए और अंतिम क्षण का इन्तेजार करना चाहिए.