इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा कि ‘कन्यादान’ (एक अनुष्ठान जहां दुल्हन का पिता अपनी बेटी को दूल्हे को ‘दे देता है’) एक वैध हिंदू विवाह के समापन के लिए एक आवश्यक रस्म नहीं है. जज सुभाष विद्यार्थी की पीठ ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 7 (हिंदू विवाह के लिए समारोह) का उल्लेख करने के बाद 22 मार्च को पारित एक आदेश में यह टिप्पणी किया है. कोर्ट ने कहा, “हिंदू विवाह अधिनियम केवल सप्तपदी को हिंदू विवाह के एक आवश्यक रस्म के रूप में प्रदान करता है और यह यह प्रदान नहीं करता है कि कन्यादान की रस्म हिंदू विवाह के समापन के लिए आवश्यक है.”
प्रासंगिक रूप से, हिंदू विवाह की धारा 7 कहती है कि हिंदू विवाह विवाह के किसी भी पक्ष के पारंपरिक संस्कारों और रस्मों के अनुसार संपन्न किया जा सकता है. प्रावधान में कहा गया है कि जहां ऐसे संस्कारों और रस्मों में सप्तपदी (दूल्हा और दुल्हन द्वारा पवित्र अग्नि के सामने संयुक्त रूप से सात कदम उठाना) शामिल है, सातवां कदम उठाने पर विवाह पूर्ण और बाध्यकारी हो जाता है.
लखनऊ की एक सत्र अदालत के समक्ष लंबित एक मामले में कुछ गवाहों को वापस बुलाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते समय अदालत का ध्यान इस प्रावधान की ओर आकर्षित हुआ. याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि 2015 में विवाह के संचालन का समर्थन करने के लिए प्रस्तुत किए गए विवाह प्रमाण पत्र के संबंध में गवाहों के पहले के बयानों में कुछ विसंगतियां थीं. याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि विवाह के दौरान कन्यादान किया गया था या नहीं यह जांचने के लिए दो गवाहों (एक महिला और उसके पिता) की दोबारा जांच की जानी थी, क्योंकि कन्यादान हिंदू विवाह का एक अनिवार्य हिस्सा है.
नोट- यह रस्म कभी खत्म हो जानी चाहिए थी. कन्या दान की वस्तु नहीं है.

