वैदिक ज्योतिष में भगवान के विराट स्वरूप की नक्षत्र पुरुष के रूप में कल्पना किया गया है. भगवान के विराट स्वरूप का वर्णन भागवत आदि पुराणों में भी किया गया है. भागवत में बताया गया है कि ज्योतिषचक्र भगवान का अधिभौतिक स्वरूप है. ग्रह, नक्षत्र, तारे और आकाशगंगाएं सभी उनके विराट स्वरूप का हिस्सा हैं. सूर्य, चन्द्र और सभी ग्रह नक्षत्र उनके संकल्पों से ही अपने निर्धारित पथ पर विचरण करते रहते हैं. बृहदारण्यक उपनिषद में भी यही बात कही गई है –
“‘तस्य सद्वस्तुनः आदेशेण एव सूर्यचन्द्रौ स्व संयुक्तक्रमस्य स्तुति कुरुतः, स्वर्गपृथिव्यौ स्वस्थाने स्थितौ वर्तते।” क्षण-मुहूर्त-दिन-रात्रि-पक्ष-मास-ऋतु-वर्षः स्वपथे अनुगमनं कुर्वन्ति।”
हे गार्गी! उस एक अक्षर के आदेश पर ही सूर्य और चंद्रमा अपने अपने मार्ग पर आरुढ़ हैं; स्वर्ग और पृथ्वी अपना स्थान बनाए रखते हैं; क्षण, घंटे, दिन और रात, पखवाड़े और महीने, ऋतुएँ और वर्ष-सभी अपने पथ पर चलते हैं.
भागवत पुराण में इसी विराट पुरुष का ध्यान करने के लिए कहा गया है. भगवान विष्णु का तीन संध्याओं में उनके विराट स्वरूप का ध्यान करने वाले के सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं. ध्यान करते समय निम्नलिखित मन्त्र का जप करना चाहिए –
।। ॐ नमो ज्योतिर्लोकाय कालायनायानिमिषां पतये महापुरुषायाभिधीमहीति ।।
इसके अतिरिक्त नक्षत्र पुरुष की कल्पना करके भगवान विष्णु या शिव का पूजन करना चाहिए. परम्परा के आचार्यों ने यह बताया है कि इस प्रकार पूजन करके मन्त्र का जप करने वाले का कभी कोई अनिष्ट नहीं होता है. यह विधि किसी गुरु से सीख लेना चाहिए. सभी प्रकार की उपासना में गुरु ही मार्गदर्शक होता है. गुरु ही आपको सही विधि बताता है और सिद्धि के उपाय बताता है. परम्पराविहीन गुरु किसी भी मन्त्र का उपदेश करने की योग्यता नहीं रखते. परम्परा से मन्त्रों का बल प्राप्त हो सकता है.


