भारत में 27 नक्षत्रों के मन्दिर है जो दक्षिण भारत के तमिल देशम में स्थित हैं. इस श्रृंखला में सभी नक्षत्रों के मन्दिरों का वर्णन किया जाएगा. दो नक्षत्र मन्दिरों का पहले विस्तार से वर्णन किया जा चुका है. स्वाती नक्षत्र 15वें नम्बर पर आता है. हिन्दू शाक्त धर्म में 15 को पूर्ण नम्बर कहा गया है इसलिए विद्या का यह एक जबर्दस्त नक्षत्र है. स्वाति नक्षत्र का बड़ा दोष ये होता है कि जातक जीवन में स्थिरता के लिए संघर्षरत रहता है. विद्याकामी लोगों के साथ यह अस्थिरता लंबे समय तक बनी रहती है. दक्षिण भारत में तमिलनाडु के तिरूचिरापल्ली में स्थित शिव का जंबुकेश्वर मन्दिर स्वाती नक्षत्र से सम्बन्धित है . दक्षिण भारत में कावेरी नदी के निकट श्रीरंगमतीर्थ के अंतर्गत एक प्रसिद्ध शैव मंदिर है जो जलतत्वप्रधान शिवलिंग माना जाता है. श्रीरंग मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर का लिंग जल में प्रतिष्ठित है. फर्ग्युसन के अनुसार इसका निर्माण १६वीं शताब्दी के अंत में हुआ था. किंतु मंदिर के एक शिलालेख से इसका अस्तित्व शक काल के पूर्व दूसरी शताब्दी विदित होता है. मंदिर बहुत विशाल तथा विस्तृत है.

इस प्रसिद्ध शिव मंदिर का इतिहास लगभग 1800 साल पुराना माना जाता है. इसका निर्माण शक्तिशाली हिन्दू चोल राजवंश के राजा कोकेंगानन ने करवाया था. राज्य की धार्मिक शोभा बढ़ाता यह मंदिर श्रीरंगम द्वीप पर स्थित है जहां प्रसिद्ध रंगनाथस्वामी मंदिर भी है. जंबुकेश्वर शिव मंदिर तमिलनाडु के पांच सबसे प्रमुख शिव मंदिरों में गिना जाता है. ये पांच मंदिर पंच महातत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं. जिनमें जंबुकेश्वर जल तत्व का प्रतिनिधित्व करता है. जंबुकेश्वर में भूमिगत जल धारा है, जिससे यहां पानी की कोई कमी नहीं होती.
कथानुसार एक बार देवी पार्वती ने दुनिया के सुधार के लिए की गई शिवजी की तपस्या का मज़ाक उड़ाया. शिव पार्वती के इस कृत्य की निंदा करना चाहते थे, उन्होंने पार्वती को कैलाश से पृथ्वी पर जाकर तपस्या करने का निर्देश दिया. भगवान शिव के निर्देशानुसार अक्विलादेश्वरी के रूप में देवी पार्वती पृथ्वी पर जम्बू वन कर तपस्या के लिए पहुंची. देवी ने कावेरी नदी के पास वेन नवल पेड़ के नीचे शिवलिंग बनाया और शिव पूजा में लीन हो गईं. बाद में लिंग अप्पुलिंगम के रूप में जाना गया. तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव जी ने अक्विलादेश्वरी को दर्शन दिए और शिव ज्ञान की प्राप्ति कराई.

इस मंदिर से जुड़े एक और पौराणिक कथा के अनुसार कभी ‘मालयान’ और ‘पुष्पदांत’ नाम के दो शिव के शिष्य हुआ करते थे. हालांकि वे शिव भक्त थे लेकिन वे हमेशा एक-दूसरे से झगड़ा करते थे. एक बार दोनों आपस में लड़ रहे थे इस दौरान ‘मालयान’ ने धरती पर हाथी बनने का ‘पुष्पदांत’ को श्राप दे दिया और बाद में ‘मालयान’ को भी मकड़ी बनने का श्राप मिला. हाथी और मकड़ी दोनों जंबुकेश्वर आए और शिव जी की पूजा में तल्लीन गए. हाथी कावेरी नदी से पानी एकत्र करता और जंबू पेड़ के नीचे शिवलिंग का जलाभिषेक करता.

मकड़ी ने अपनी श्रद्धा दिखाने के लिए शिवलिंग के ऊपर जाला बुना ताकि सूर्य की तेज रोशनी और पेड़ के सूखे पत्ते लिंग पर न गिरें. जब हाथी ने मकड़ी का जाला शिवलिंग पर बना देखा तो उसने गंदगी समझकर उसे जल के प्रवाह से धुल डाला. मकड़ी ने गुस्से में एक दिन हाथी की सूंड में घूसकर उसे मार डाला और खुद भी मर गई. जिसके बाद शिव, जंबुकेश्वर रूप में दोनों की गहरी भक्ति से प्रभावित होकर उसी स्थान पर आएं और दोनों को श्राप मुक्त किया. हाथी द्वारा शिव पूजा किए जाने पर इस स्थान का नाम थिरुवनैकवल पड़ा. इसलिए जंबुकेश्वर मंदिर को थिरुवनैकवल भी कहा जाता है.

विशेष : इस मन्दिर में देवी की पूजा शिव की अर्धांगिनी के रूप में नहीं होती बल्कि उनकी शिष्या के रूप में होती है . यहाँ पुजारी स्त्री वेश में ही पूजा का सम्पादन करता है. मंदिर में मूर्तियों को एक दूसरे के विपरीत स्थापित किया गया है, इस तरह के मंदिरों को उपदेशा स्थालम कहा जाता है. चूंकि इस मंदिर में देवी पार्वती एक शिष्य और जंबुकेश्वर एक गुरू के रूप में मौजूद हैं इसलिए इस मंदिर में थिरु कल्याणम यानी विवाह नहीं कराया जाता है. इस मंदिर में एकपथाथा तिरुमुथि, शिव, विष्णु और ब्रह्मा भी मंदिर में मौजूद हैं, जिन्हें केवल थुआगराज मंदिर में देखा जा सकता है.

