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ओ मल्लिकार्जुन,
जब से पनपा
तुम्हारा प्रेम
भूल गई मैं
भूख, नींद और प्यास

उई माँ, मैं जलती रही
बिना लपटों की आग में

ऊई माँ, मैं सहती रही
एक रक्तहीन घाव

ऊई माँ, मैं तड़पती रही,
बिना किसी सुख के

मल्लिकार्जुन के प्रेम में
घूम आई मैं
कैसे कैसे जगत

एक नहीं, दो नहीं, न तीन या चार
चौरासी लाख योनियों में से आई हूँ मैं
निकल कर आई हूँ
असंभव संसारों में से

कभी आनंद पिया, कभी पीड़ा

जो भी थे मेरे पूर्वजन्म
दया करो
आज के इस दिन
ओ मल्लिकार्जुन

जब मैं नहीं जानती थी स्वयं को
कहाँ थे तुम?

जैसे स्वर्ण में उसका रंग
तुम थे मुझमें

मैंने देखी
मुझ में तुम्हारे होने की विडंबना
बिना कोई अंग दिखलाए
ओ मल्लिकार्जुन!

वन हो तुम
वन के समस्त बड़े पेड़
भी तुम

पक्षी भी तुम, शिकारी भी तुम
डाल-डाल खेलते
कोई खेल

सब में तुम, तुम में सब

ओ मल्लिकार्जुन
दिखलाओ तो सही
अपना मुख!

-अक्का महादेवी

-अनुवाद कवियित्री गगन गिल