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हिन्दू धर्म में मोक्ष या निर्वाण जीवन का अंतिम उद्देश्य है. मनुष्य आज नहीं तो कल मुक्त आवश्य होगा इसलिए जन्मान्तरों की अवधारणा भी भारतीय दर्शन में मौजूद है. यह सारा जीवन दुःख ही है, दुःख के इतर जीवन में कुछ भी नहीं. गौतम बुद्ध ने यहाँ तक कहा कि प्रिय से भी वियोग, शोक और दुःख ही होता है. स्त्री, पुत्र, वित्त और कर्म ही अंतिम साध्य नहीं, मोक्ष जीवन का अंतिम सत्य है. हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय मोक्ष के लिए ही प्रयत्नशील हैं. 160 करोड भारतीय पिछले 5000 साल से इस मोक्ष को पाने का प्रयास कर रहे हैं. इस मोक्ष की प्राप्ति निष्पाप व्यक्ति को ही प्राप्त होती है लेकिन मनुष्य इसके लिए प्रयास नहीं करता. सभी कर्म पापयुक्त हैं इसलिए भगवद्गीता में कहा गया ही कि कर्म का प्रयोजन लोक यज्ञ है अर्थात कर्म जब यज्ञार्थ किया जाता है तब वह निष्पाप होता है. लेकिन हिन्दुओं का इतिहास इसके विपरीत है. अपने लिए लोक की संसिद्धि के प्रयास में हिन्दू महाभारत जैसा एक महायुद्ध लड़ चुके हैं. इस युद्ध में कुछ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, कृष्ण, सत्यकी, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और युयुत्सु जैसे योद्धा ही बच पाए थे. इस मोक्ष प्राप्ति के उद्योग में हिन्दू लगभग 2000 साल से ज्यादा गुलाम भी रहा है. मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयासरत हिन्दू वर्तमान समय में एक 300 साल पहले मरे हुए राजा औरंगजेब पर बनी फिल्म देख कर दंगा कर रहे हैं. सनातन हिन्दू धर्म की प्रमुख शिक्षा शायद हिन्दुओं के पल्ले ही नहीं पड़ी, जबकि हिन्दू धर्म में लगभग 1 करोड़ बाबा और साधु हैं तथा 10 करोड़ लोग धर्म से सम्बन्धित प्रचारादि कार्य करते हैं. हिन्दू जनता में धर्म का भाव भरते हैं और इसके लिए फासिज्म जैसे विचारधारा को भी अपनाते हैं जो घृणा विद्वेष और हिंसा की राजनीति करते हैं जो धर्म के ठीक उलट है. भारत के राज्यों में स्कूल और अस्पताल से ज्यादा मन्दिर हैं. कर्नाटक में लगभग 34,000 मंदिर हैं, जिनमें से अकेले 1000 मंदिर बैंगलोर में स्थित हैं. लेकिन जनता के भीतर धर्म न के बराबर है.

हिन्दू धर्म में जिसे माया-मोह कहा गया है और जिससे मुक्त हुए बिना कोई मुक्त नहीं हो सकता, हिन्दू उसे ही जीवन का अंतिम सत्य मानता है. आज से 5500 साल पहले भी हिन्दू इसी को अंतिम सत्य मानता था. धृतराष्ट्र यदपि की अँधा था उसे इस सत्य का ज्ञान था लेकिन तब भी वह पुत्र मोह में अँधा था. भीष्म पितामह, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य इत्यादि बहुत प्रज्ञ हिन्दू थे लेकिन मोह में वो भी अंधे थे. भगवद्गीता में अर्जुन भगवान कृष्ण से पूछता है कि हे केशव ! सब दादा, चाचा, मामा, भतीजा मारे जायेंगे तो हे केशव कुल नाश हो जाएगा. ये सब मेरे अपने हैं. तो कृष्ण क्या कहते हैं? “क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ” बेटा यह मन की दुर्बलता है. यह मेरा तेरा कुछ नहीं होता. यह आर्यों द्वारा सेवित नहीं है. यह मोह है जिससे तुझे यह खेद हो रहा है. तू वीतमोह हो जा. भगवद्गीता के 18 अध्याय इसी मोह की निवृति के लिए है. तो कृष्ण किस चीज को अंतिम सत्य मानते हैं, या किस धर्म को अंतिम सत्य मानते हैं, जिसके लिए मानवीय सम्बन्धों को मिथ्या कहते हैं? क्या वे स्वार्थी नहीं हुए ? लेकिन कृष्ण वैदिक धर्म के प्रतिनिधि हैं, वे भगवान हैं जो धर्म स्थापना के लिए आये हैं. पृथ्वी लोक में अधर्म हुआ है और धर्म क्षीण हो गया है, मनुष्य का अंतिम उद्देश्य सांसारिक जीवन का सत्य हो गया है, धन, सत्ता, पुत्र-स्त्री ही जीवन का अंतिम सत्य हो गया है जिसके लिए वह सभी नैतिक मूल्यों की तिलांजली दे चूका है. वह अधर्म को ही धर्म मानता है. महाभारत में दुर्योधन इस बात व्यक्त करते हुए कहता है-
प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।
मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती. मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मेरेसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ.

यह मोह के कारण हुआ है. कृष्ण पितृमार्गियों के इस मोह का नाश करने आये थे और महाविनाश के साथ इसका नाश किया. जिस ज्ञान का उपदेश भगवद्गीता में कृष्ण करते हैं उस पर सनातन धर्म आधारित है. वेद से पुराण तक यही बताया गया है कि कोई तुम्हारा नहीं है. यह सब माया-मोह है. माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पिता, चाचा-भतीजा यह सम्बन्ध संसारिक का संबंध है. यह क्षणिक है और यह सम्बन्ध कर्म जनित है. यह सबन्ध आगे फिर नहीं रहेगा. पहले भी नहीं था. मनुष्य अकेला है. हिन्दू धर्म पिछले 5000 साल से यह उपदेश कर रहा है कि हिन्दूओं को माया-मोह से दूर रहना चाहिए और अपनी मुक्ति के लिए उद्यम करना चाहिए. जीवन नश्वर है और सम्बन्ध भी क्षणिक हैं. इन 5000 साल में हिंदू इसके ठीक उल्टा चला है. स्वार्थ में वह देश को भी नहीं मानता. 99 प्रतिशत हिंदू अनैतिक हैं और चोरी में विश्वास करते है. भारत एक सबसे अनैतिक और भ्रष्ट देश में शरीक है. विश्व की तीसरे लेवल के करप्ट देशों में भारत की रैंकिंग तीन अंक गिर कर 38 है. भगवद्गीता के इस सिद्धांत को क्या कोई हिंदू मानता है? शायद नहीं मानता.

कृष्ण मोहमुक्त थे. कृष्ण को पता था कि उनकी रानियां लूट जायेंगी और अर्जुन उनकी रक्षा नहीं कर पायेगा. तब भी उन्होंने कोई फ़िक्र नहीं की और “गुडबाय” बोला और स्वधाम निकल लिए. तुम अपना कर्मा देखो, उसमें मेरा क्या लेना देना. हिन्दू धर्म में यह सिद्धांत क्या एक यूटोपियन सिद्धांत नहीं है? इस सिद्धांत पर ही हिन्दू धर्म में मोक्ष की अवधारणा टिकी हुई है. यदि यह एक यूटोपियन सिद्धांत नहीं होता तो एक्का दुक्का सन्यासी महात्मा और कृष्ण जैसे योगी के इतर कौन है जो इस जीवन को ही अंतिम सत्य नहीं मानता और उसके लिए कोई पाप या जुर्म करने से नहीं चूकता? साधु सन्यासी मरने से पहले अपनी मूर्ति या समाधि बनवा लेते हैं ताकि वो यहाँ बने रहें और लोग उनकी पूजा करते रहें. पितर भी इस जीवन को ही अंतिम सत्य मानते हैं और उनकी आसक्ति इस हद तक है कि मर कर भी पिंड नहीं छोड़ते. मरने के बाद भी भूखे रहते हैं, हिन्दू उन्हें मरने के बाद भांति भांति के भोजन खिलाता है. पितृ लोक में न पानी है, न जल है और पितर अपने पुत्रों के हाथ से खाना नहीं खा लेते तब तक उनकी भूख नहीं मिटती. प्राणपखेरू उड़ जाने के बाद भी अभिनिवेश, बच्चों और भोजन में लालसा? यह आसक्ति नहीं है, कृष्ण इसे अज्ञानता कहते हैं. यह पितृ कर्म ही अज्ञानता है.

अज्ञानता ही बंधन है और इस अज्ञानता का नाश ही मुक्ति है. जब अर्जुन पूछता है कि सब पुरुष मर जायेंगे तो क्या श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इनके पितर भी अपने स्थान से नहीं गिर जायेंगे? तो कृष्ण इसका उत्तर नहीं देते और जब उपदेश करते हैं तो कहते हैं “यह अनार्यों द्वारा सेवित है और हेय है. इससे न स्वर्ग की प्राप्ति होती है और न कीर्ति ही प्राप्त होती है.” जब सात्विक-राजसिक और तामसिक पूजा का वर्णन करते हैं तो इसे तामसिक पूजा में पितृपूजा को निकृष्ट भूतादि पूजा के अंतर्गत गिनते हैं. शास्त्रों में पितर श्राद्ध आदि को प्रेत कर्म कहा भी जाता है. मुक्ति की अवधारणा यूटोपियन नहीं है लेकिन सांसारिक मनुष्य के सन्दर्भ में यह यूटोपियन आवश्य है.