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वैदिक ज्योतिष ऋषि प्रदत्त विद्या मानी गई है. जिन आचार्यों ने ज्योतिष का उपदेश किया उनका वर्णन सभी पुराणों में है और सूर्यसिद्धान्त की भूमिका में भी इन आचार्यों का नाम आया है. उनमें से सभी वैदिक काल के ही ऋषि हैं –
सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः।
कश्यपो नारदो गर्गो मारीचिर्मनुरङ्गिराः॥
लोमशः पुलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः।
शौनकोऽष्टादशश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्त्तकाः॥

वैदिक ज्योतिष के सूत्र इन्हीं १८ आचार्यों (ब्रह्मा, आचार्य, वशिष्ठ, अत्रि, मनु, पौलस्य, रोमक, मरीचि, अंगिरा, व्यास, नारद, शौनक, भृगु, च्यवन, यवन, गर्ग, कश्यप और पाराशर) द्वारा कहे गये हैं जो यत्रतत्र बिखरे हुए हैं. नारद भी इसके एक प्रमुख आचार्य है जिन्हें भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने ‘देवर्षीणां च नारदः’ कह कर उन्हें अपना स्वरूप बताया है. नारद ने भी ज्योतिष शास्त्र प्रवर्तक अट्ठारह आचार्यों का स्मरण किया है. नारद के अनुसार –
वैनेतदखिलं श्रौत्रस्मार्त कर्म न सिध्यति।
तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा ।
ज्योतिष के बिना श्रौत्र-स्मार्त कर्म सिद्ध नहीं होता इसलिए ब्रह्मा जी ने यज्ञ-कर्म के लिए पहले ज्योतिष शास्त्र को रचा. यह सभी श्रुतियों-स्मृतियों, पुराण और महाभारत का मत है कि ज्योतिष शास्त्र अस्तित्व में वेदों के साथ ही आया. यह वेद जितना ही प्राचीन है. जिस तरह सनातन धर्म के केंद्र में कर्म सिद्धांत है, उसी प्रकार ज्योतिष भी कर्म सिद्धांत पर ही आश्रित है. मनुष्य के सुख और दुःख का कारण उसका कर्म है. उस कर्मों के अनुसार ही भगवान उन्हें उसका फल प्रदान करते हैं. फल प्रदान करना ईश्वर के हाथ में है, कई बार मनुष्य के खराब कर्मों के बाद भी भगवान उसे मुक्त कर देते हैं और उसे सभी भोग की प्राप्ति करा देते हैं. आचार्य रामानुज ने इसके बारे में अपने भाष्य में लिखा है –

लोक व्यवहार की तरह ही जीव और ब्रह्म में भेद है. शारीरिक धातु वैषम्य के कारण जो जीव को दुःख आदि प्राप्त होते हैं, उसका कारण उसका सिर्फ शरीरी होना नहीं है, अपितु पुण्य और पाप कर्म ही उसका कारण है. मनुष्य के पाप या पुन्य कर्मों के अनुसार भगवान उन्हें तदनुसार ग्रहों के माध्यम से भोग कराता है क्योंकि कर्मविपाक और भोग में काल ही कारण है. ज्योतिषचक्र काल का ही मूर्त रूप है और ग्रहों की रश्मियाँ उसके सूक्ष्म रूप हैं. ग्रह अपनी दशा में उन देवताओं के अनुसार जातक को सुख दुःख आदि का भोग कराते हैं. ग्रहों में गुरु बृहस्पति सबसे शुभ हैं क्योकि धर्म और ज्ञान पर उनका अधिकार है. कोई राजा इसके बिना कोई कर्म नहीं करता. कर्म वेद से उत्पन्न हुआ “कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि” वेद ही कर्म का मूल है. धर्म सभी कर्मों का हेतु है. बृहस्पति नैसर्गिक शुभ ग्रह है और नैसर्गिक नवमेश और मुक्तिकारक हैं, जबकि सूर्य देव नैसर्गिक राजा है और पंचमेश हैं. दोनों एक दूसरे के अनुसार बर्ताव करते हैं. प्रयाग में महाकुम्भ 12 वर्ष बाद लगता है. यह बृहस्पति के एक सम्वत्सर युग के पूरा होने पर लगता है जब सूर्य देव मकर राशि में स्थित होते हैं और बृहस्पति वृष राशि में स्थित होते हैं. 12 वर्ष के पांच चक्र अर्थात पांच युग मिलकर एक सम्वत्सर पूर्ण होता है.

इस सन्दर्भ से बृहस्पति के शुभत्व का अनुमान लगाया जा सकता है. जिस तरह राजा राम ने नारद, वशिष्ठ आदि गुरुओं के कहने पर एक दलित शम्बूक का वेदविरुद्ध घोर तप करने के कारण वध कर दिया था, उसी प्रकार गुरु यदि न चाहे तो राजयोग नहीं होता. संसार में जिस तरह राजा की बात न मानने वाले उसके कोप का भजन होते हैं और मानने वाले उसके द्वारा सम्मानित होते हैं और वह उन्हें अनेक जुर्म से भी मुक्त कर देता है, उसी प्रकार यदि जातक पर सूर्य देव और गुरु बृहस्पति की कृपा है तो वह अनेक पाप कर्म के बाद भी मुक्त हो जाता है और उसे राजयोग भी प्राप्त हो जाता है. यदि किसी राजा का गुरु उस राजा से किसी को मुक्त करने के लिए इशारा करता है तो राजा उसे क्षमा कर देता है. गुरु के आदेश की अवहेलना राजा नहीं करते. भगवान भी गुरु की कही किसी बात की अवहेलना नहीं करते, उसे ही पुष्ट करते हैं. भगवान का अवतार अक्सर गुरुओं की कही बात को सत्य सिद्ध करने के लिए भी हुआ है. राष्ट्रपति को इसी कारण से क्षमा का विशेष अधिकार प्राप्त है.

कर्म रहस्य को सभी नहीं जानते, इसे सिर्फ गुरु ही जानते हैं. भगवद्गीता में है ” जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः” जो मेरे जन्म कर्म को तत्वत: जानता है, वह मुक्त हो जाता है. वह गुरु ही मनुष्य को मुक्त करने की योग्यता रखता है जो कर्म रहस्य को जानता है. जंगल में रहते हुए लूटेरा बन कर 99 कत्ल करने के बाद भी सप्तऋषियों ने वाल्मीकि को मुक्त कर दिया और वे महर्षि वाल्मीकि बन कर जगत में प्रसिद्ध हुए. वैदिक ज्योतिष में गुरु की महिमा अपरम्पार है. इनकी महिमा इतनी है कि यदि सूर्य नीच हो तो राजयोग बाधित हो जाता है, यदि गुरु नीच हो तो सुख बाधित हो जाता है. यदि कुंडली में गुरु नीच भाव में हो तो उसे कभी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती. एक आचार्य जो विद्वान् और तपस्वी है वह जातक को अनेक दोषों से मुक्त कर देता है.