प्रारब्ध मनुष्य के अपने ही कर्मों से निर्मित होता है और तदनुकूल ही उसका अच्छा बुरा फल होता है. पुरी शंकराचार्य स्वांमी निश्चलानन्द जी महाराज ने इस बावत पूछे गये प्रश्न के उत्तर में कहा कि यदि प्रारब्ध का फल दुःख और कष्ट के रूप में प्राप्त होता है तो यदि उसका आध्यात्म में विनियोग कर दिया जाय तो उसका कष्ट निवृत्त हो जाता है या कम हो जाता है. ग्रहों के मन्त्र जप, ग्रहों का अनुष्ठान इत्यादि इसी सन्दर्भ में लाभकारी होते हैं.
ऐसा नहीं है कि जो कर्म किया उसका फल भोगना ही पड़ेगा, यदि ऐसा होगा तो 99 मर्डर करने वाले वाल्मीकि मुक्त नहीं होते. यदि बुरे प्रारब्ध का फल भोग कोई ग्रह करा रहा है तो उसके विपरीत शुभ कर्म द्वारा उसका ध्वंश किया जा सकता है. इसलिए भगवद्गीता में कहा है-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।।
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है।
वीडियो को पूरा सुन लें ..

