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1- साधना के समय ध्यान करते करते मैं और भी कितना कुछ देखा करता था। बेलतले मैं ध्यान कर रहा था। पाप पुरुष आकर कितने प्रकार के लोभ दिखाने लगा । लडाकू गोर का रूप धर के आया था । रुपया, मान, रमण-सुख, नाना प्रकार की शक्ति -ये सब देना चाहता था । मैं मां को पुकारने लगा । बड़ी गुह्य बात है ।
मां ने दर्शन दिया। तब मैंने कहा था. ‘मां उसको काट डालो!; मां का वही रूप -वही भुवनमोहन रूप -याद आ रहा है ! कृष्णमयी का रूप ! और भी कितना क्या क्या देखा लेकिन वह बोलने नहीं देती – मुख को जैसे कोई अटका रहा है ( बंद करता है ) !

2-सजना ( सहजना drumstick ) और तुलसी एक बोध होता है ! भेद बुद्धि दूर कर दी ! बटतले ध्यान कर रहा था, मां ने दिखाया एक दाढ़ी वाला मुसलमान ( पैगम्बर मोहम्मद ) सानिक ( चीनी मिटटी की थाली ) में भात लेकर सामने आ गया । सानिक में से म्लेच्छों को खिलाकर मुखको थोड़ा सा दे गया ।

मां नें दिखलाया ‘एक बोइ दुई नाइ ‘ ( एक के अतिरिक्त दूसरा नहीं है । नेह नानास्ति किंचन ।) सच्चिदानंद ही नाना रूप धारण किये हुए हैं । वे ही जीव-जगत समस्त बने हुए हैं । वे ही अन्न हुए हैं ।

3-प्रतिमा पूजा में दोष क्या है ? वेदांत कहता है, जहाँ पर ‘अस्ति, भाति और प्रिय ‘ है, वहां पर ही उनका प्रकाश है। जभी तो उनके अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है। और फिर देखो, छोटी लडकियाँ गुडिया का खेल कब तक करती हैं? जब तक विवाह नहीं होता, और जब पति संग सहवास नहीं कर लेती। विवाह होने पर गुडिया आदि पिटारी में उठा कर रख देती है। ईश्वर लाभ होने पर प्रतिमा पूजा का क्या प्रयोजन ?

-रामकृष्ण परमहंस वचनामृतं