उड़ीसा स्थित जगन्नाथ मन्दिर भगवान श्री कृष्ण का सुप्रसिद्ध मन्दिर है. इस मन्दिर पर विद्वानों की राय कुछ ऐसी है जो हिन्दू धर्म अनुयायियों को नहीं पचती. जगन्नाथ मन्दिर के बारे में स्वामी विवेकानंद का कहना था कि यह मन्दिर पहले बौध तांत्रिक मन्दिर था जिस पर हिन्दूओं ने कब्जा करके वैष्णव मन्दिर में तब्दील कर दिया. उन्होंने यह नहीं बताया कब किया गया था ? जगन्नाथ मन्दिर की पूजन परम्परा आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित की गई थी. मन्दिर की रथयात्रा की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी. जब से मन्दिर है तब से आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित गोवर्धन मठ के पीठाधीन शंकराचार्य करते हैं. क्या यह आदि शंकराचार्य द्वारा ही वैष्णव हिन्दू मन्दिर में तब्दील किया गया था? ऐसी ही कथा बद्रीनाथ भगवान के बारे में भी कहीं जाती है. विद्वानों का मत है कि ध्यानस्थ मूर्ति वास्तव में बौध मूर्ति है. बद्रीनाथ के बारे में यह कथा प्रसिद्ध है कि इसका उद्धार आदि शंकराचार्य ने किया था. बद्रीनाथ नाथ भगवान की मूर्ति को कुंड से निकाल कर उन्होंने स्थापित किया था. जगन्नाथ पूरी शैव तांत्रिकों का गढ़ था, सम्भवत: यह शैव तांत्रिक मन्दिर था.

जगन्नाथ मन्दिर वर्तमान में वैष्णव धाम है लेकिन प्राचीन समय में कभी यह क्षेत्र तंत्र का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हुआ करता था. आदि शंकराचार्य की जीवनी से भी यह स्पष्ट होता है. जगनाथ मन्दिर के तंत्र मन्दिर होने का साक्ष्य मन्दिर के बाहरी दीवारों पर उकेरे सम्भोगरत मूर्ति शिल्प हैं. शाक्त साधक जगन्नाथ को भैरव और बिमला माता को उनकी शक्ति मान कर उनकी उपासना करते हैं. पूर्व में यह स्थल शाक्त साधना का सबसे बड़ा स्थल था लेकिन कालान्तर में वैष्णव शक्तिशाली हुए और मन्दिर सहित इस क्षेत्र पर उनका अधिपत्य हो गया. कुछ विद्वानों का मानना है कि यह क्षेत्र शैव तांत्रिकों से अतिक्रांत था जिसे आदि शंकराचार्य ने शुद्ध किया. उड़ीसा जगन्नाथ क्षेत्र है और ऋग्वेद में प्रतिष्ठित कहा जाता है. जगन्नाथ भगवान का विग्रह भी अद्भुत है . यह नीम के पेड़ (दारू ब्रह्म) से हर वर्ष एक बार निर्मित किया जाता है. गौरतलब है कि नीम का सम्बन्ध शैव-शाक्त परम्परा से है. भगवान का पहला विग्रह खुद देवों के शिल्पकार विश्वकर्मा ने बनाया था. जगन्नाथ भगवान के साथ इस मन्दिर में सुभद्रा और बलराम स्थित हैं. श्री कृष्ण के साथ उनकी बहन सुभद्रा की पूजा भी तांत्रिक स्वरूप रखती है,सहस्रनाम में देवी को विष्णु सहोदरी कहा गया है.

जगन्नाथ मन्दिर में जगन्नाथ जी के दक्षिण भाग में पीछे शक्ति बिमला का मन्दिर स्थित है जो उनकी तांत्रिक शक्ति हैं और बायीं तरफ लक्ष्मी का मन्दिर है जो उनकी पत्नी कही जाती हैं. भगवान जगन्नाथ को प्रसाद लगने के बाद वह माँ बिमला को ही भोग के लिए जाता है. उनके भोग के बाद ही यह पवित्र होता है .यह चर्या भी इसके तांत्रिक स्वरूप को स्पष्ट करता है. लोकाचार के अनुसार भी पति के उच्छिस्ट पर पत्नी का ही अधिकार माना जाता है. देवि बिमला के भोग के बाद ही वह महाप्रसाद बनता है. एक अन्य महत्वपूर्ण बात ये है कि पूर्व मां बिमला को भोग के बाद महाप्रसाद सबसे पहले गोवर्धनमठ भेजा जाता था.
ऐसी लोक कथा है कि भगवान शिव ने बैकुंठ में देखा की भगवान विष्णु के भोजन के बाद कुछ भोग जमीन पर गिर गया है. उन्होंने उसे उठा का खा लिया लेकिन कुछ कण उनकी दाढ़ी में लगे रहे. नारद ने यह देखा और उसे निकाल कर खा लिया क्योकि विष्णु का यह पवित्र उच्छिस्ट था. मां पार्वती ने जब यह देखा तो बहुत नाराज हो गई क्योकि वह उनका हक़ था. उन्होंने इस बात की विष्णु भगवान से शिकायत की जिसपर पर भगवान ने उनके क्रोध को शांत करते हुए इनकी ईच्छा पूर्ण करने ले लिए कहा कि “कलियुग में जब मैं पुरी क्षेत्र में निवास करूंगा तब आप मेरी शक्ति के रूप में दक्षिण भाग में निवास करेंगी और मेरे भोग के बाद सारे भोग पर आपका ही अधिकार होगा.” तब से जगन्नाथ को भोग लगने के बाद वो भोग देवी बिमला को लगता है .

किसी भी वैष्णव मन्दिर में मीट और मछली का भोग नहीं लगता . मां बिमला को विशेष पर्व और उत्सव के समय मीट और मछली का भोग लगाया जाता है. मछली मन्दिर के भीतर स्थित मारकन्ड सरोवर से निकाली जाती है और उसे मन्दिर के पास ही स्थित किचन में पकाया जाता है और एक लम्बे तांत्रिक कर्म के बाद उसका भोग लगाया जाता है . गौरतलब है कि यह भोग सबको प्राप्त नहीं होता. देवी को दशहरा पर छाग की बलि भी दी जाती है जो बहुत गुप्त होता है. तांत्रिक बलि कर्म के समय मन्दिर से सभी वैष्णव लोगों निकाल दिया जाता है. यह सुबह होने से थोड़े देर पहले 2-3 बजे के इदगिर्द सम्पन्न होता है. देवी के निमित्त किये जाने वाले सभी तांत्रिक कर्म बंद दरवाजे के भीतर ही सम्पन्न होते हैं. सभी तांत्रिक कर्म 4 बजे जगन्नाथ मन्दिर के कपाट खुलने से पूर्व ही सम्पन्न कर लिया जाता है. इस तांत्रिक पूजा में उपस्थित लोगों को ही यह प्रसाद दिया जाता है . इस मन्दिर से शैव ऋषि मारकन्डेय का नाम का जुड़ना भी इसे तांत्रिक मन्दिर सिद्ध करता है. प्राचीन समय में शैव और वैष्णवों में छत्तीस का आंकड़ा था. मार्कण्डेयपुराण में मांस-मदिरा को मार्कण्डेय ऋषि ने खुल कर पूजा में प्रयोग करने की अनुशंसा की है.
प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः ।
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं।।
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि ॥
यह महाशक्ति बिमला ही छह अम्नायों की सींचती हुई अपनी योगभूमि में सोतीं हैं और भक्तों की अर्चना से प्रसन्न हो उन्हें सब कुछ प्रदान करती हैं .

