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सभी तीज के व्रतों में भाद्रपद महीने की हरतालिका व्रत तीज का विशेष महत्व बताया गया है. यह पर्व देशभर में मनाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश तथा बिहार में बहुत ज्यादा मान्यता है. भविष्योत्तर पुराण के अनुसार भाद्रपद मास के अत्यंत महत्वपूर्ण व्रतों में हरितालिका तीज का उल्लेख है. ज्योतिष के अनुसार भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हस्त नक्षत्र में यह पवित्र हरतालिका तीज व्रत रखा जाता है. प्राचीन काल से महिलाएं इस व्रत को अखंड सौभाग्य और सुखी दांपत्य जीवन के लिए रखती हैं. इस व्रत का सम्बन्ध पार्वती से है, उन्होंने ही इस व्रत को पहली बार किया था. इस व्रत को सभी व्रतों में कठिनतम व्रत माना जाता है क्योंकि इस व्रत को महिलाएं निर्जला रहकर करती है. परम्परा के अनुसार कुंवारी कन्याएं भी हरतालिका तीज व्रत सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए रखती हैं. हरतालिका तीज व्रत के लिए  शादीशुदा महिलाओं को उनके मायके से साड़ी, श्रृंगार का समान, मिठाई, फल और कपड़े इत्यादि मायके से आते हैं.

हरतालिका तीज व्रत तिथि, शुभ मुहूर्त

भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि का प्रारंभ 17 सितंबर, दिन रविवार को दिन में 9 बजकर 43 मिनट पर होगा जो 18 सितंबर को दिन में 10 बजकर 27 मिनट पर समाप्त हो जाएगी. अतः उदया तिथि में तृतीया  का व्रत 18 सितंबर दिन सोमवार को रखा जाएगा.
हरतालिका तीज के दो शुभ मुहूर्त निकले हैं- पहला शुभ मुहूर्त सुबह के समय और दूसरा प्रदोष काल यानी सूर्यास्त के बाद बन रहा है. दूसरा मुहूर्त ही सुविधाजनक है.
सुबह का मुहूर्त- सुबह 06 बजें से सुबह 07 बजकर 30 मिनट तक  एवं सुबह 9 बजे से 10:25 बजे तक है.
प्रदोष काल पूजा मुहूर्त- शाम को 05 बजकर 50 मिनट से रात 07 बजकर 30 मिनट तक  है.
इस मुहूर्त में भगवान शिव ,माता पार्वती, गणेश भगवान की पूजा उपासना विशेष रूप से लाभदायक होगा।

हरितालिका व्रत की कथा –

पौराणिक कथा के अऩुसार माता पार्वती ने भगवान शिव के पति के रूप में पाने के लिए हिमालय पर्वत पर बचपन से ही कठोर तपस्या कठोर तप किया था. माता पार्वती अपने कई जन्मों से भगवान शिव को पति के रूप में पाना चाहती थी. माता पार्वती ने इस तप में अन्न और जल का त्याग कर दिया था, खाने में वे मात्र सूखे पत्ते चबाया करती थीं. इस कारण उनका नाम अपर्णा पड़ा था. माता पार्वती की ऐसी हालत को देखकर उनके माता-पिता बहुत दुखी हुए. एक दिन देवऋषि नारद भगवान विष्णु की तरफ से पार्वती जी के विवाह के लिए प्रस्ताव लेकर उनके पिता के पास गए. माता पार्वती के माता और पिता को उनके इस प्रस्ताव से बहुत खुशी हुई. इसके बाद उन्होंने इस प्रस्ताव के बारे में मां पार्वती को सुनाया. माता पार्वती इश समाचार को पाकर बहुत दुखी हुईं, क्योंकि वो अपने मन में भगवान शिव को अपना पति मान चुकी थीं. माता पार्वती ने अपनी सखी को अपनी समस्या बताई. माता पार्वती ने यह शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया.

पार्वती जी ने अपनी एक सखी से कहा कि वह सिर्फ शिव को ही पति के रूप में स्वीकार करेंगी. सखी की सलाह पर पार्वती जी ने घने वन में एक गुफा में भगवान शिव की अराधना की. भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र में पार्वती जी ने मिट्टी का पार्थिव शिवलिंग बनकर विधिवत पूजा की थी. पार्वती जी के इस महान तप से खुश होकर भगवान शिव ने माता पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया था.

इस कारण इस व्रत को संसार की सभी महिलायें के सुहाग की उम्र लंबी और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए करने लगीं. जो स्त्री इस व्रत को पूरे विधि-विधान और श्रद्धापूर्वक व्रत करती है उसे इच्छानुसार वर की प्राप्ति होती है.