कुंडली में जब पाप ग्रहों द्वारा खराब योग बनते हैं तब उनसे होने वाले रोगों में मानसिक रोग विकट भी हो जाते हैं. मानसिक उन्माद और अन्यान्य मनोरोग लाईलाज भी हो जाते हैं. पूर्वजन्मों के पाप कर्मों के कारण जन्म कुंडली में ग्रहों के कुयोग बनते हैं जिससे जातक अनेक प्रकार की बाधाओं का सामना करता है. अशुभ ग्रहयोगों के कारण ही उस पर अभिचार इत्यादि होते हैं जिससे अनेक प्रकार के मनोरोग होते हैं. सभी ग्रह त्रिगुणात्मक होते हैं इसलिए ग्रहीय उन्माद तीन तरह के होते हैं –
वात जनित उन्माद- अकारण हंसना, ताली बजाना, नाचना, रोने लगना, बिना कारण हाथ पैर पटकना, शरीर का ताम्बे जैसा रंग हो जाना, दुबला हो जाना, कमजोर होने पर भी शरीर में बहुत ताकत होना, अधिक बोलना ये वातज उन्माद हैं .
पित्त जनित उन्माद – हुल्लड़ मचाना, हमेशा क्रोध, दुसरो पर अकारण हमला करना, छाया में बैठने की इच्छा करना, शीतल भोजन और पेय की इच्छा, रोष( शरीर में चमक होना), शरीर हमेशा गर्म रहना इत्यादि
कफ जनित उन्माद –हमेशा स्त्री से एकांत की इच्छा, नीद की अधिकता, अरुचि, मन ही मन में बोलना, मुंह से लार गिरना, उबकाई आना, भोजन के बाद और खाने का मन करना, आंख का सफेद होना, यह उन्माद भोजन के बाद बल पकड़ लेता है.
ये उन्माद ग्रहों के पाप युति, दृष्टि, योग, पूर्व जन्म के पाप से, गुरु, देवता आदि के प्रकोप से, आगन्तुक अर्थात बाहरी स्पिरिट का प्रभाव से होते हैं. आगन्तुक में विष से, ड्रग से, भूतों से, असुरो के प्रकोप से, गन्धर्व और यक्षो के अधिग्रहण से, राक्षस, नाग, पितर, पिशाचों से होते हैं.
देवताओं का प्रकोप पूर्णिमा के दिन शुरू होता है. असुरो का दोनों संध्या काल में, गन्धर्वों का अष्टमी के दिन, यक्षो का प्रतिपदा को, पितरो का अमावस्या को, नागो का उसकी तिथि में, पिसाच चतुर्दशी को अपनी पहचान करा देते हैं. जिस तरह मणि में सूर्य की किरणें दिखती है और शरीर में प्राण प्रवेश करता है वैसे ही ये प्रवेश करते हैं लेकिन दिखते नहीं,.
बाधक स्थान ग्रहों के चरित्र और स्वभाव के अनुसार देव, राक्षस, यक्ष,सर्प, ब्रह्म राक्षस आदि कृत ग्रह पीड़ा होती है जिससे उन्माद होता है. यदि सूर्य बाधक स्थान में हो तो शैव गणों या भूतगणों से पीड़ा होती है, चन्द्रमा यदि बाधक स्थान में हो तो शाक्तगणों और धर्म देव से पीड़ा होती है, मंगल हो तो स्कन्द, भैरव आदि से पीड़ा होती है, बुध हो तो गंधर्व, यक्षिणी इत्यादि से, गुरु हो तो ब्रह्म शाप , देव कोप से , शुक्र हो तो यक्षिणी, ब्रह्म राक्षस से , शनि हो तो भूत गण, शिव गणों से , राहु हो तो सर्प गण से बाधा होती है और उन्माद होता है. इस सम्बन्ध में बाधक स्थान को आरूढ़ लग्न से देखना चाहिए.
इसके इतर अधिक व्रत करने से भी उन्माद होता है. अभिचार से उन्माद होता है, देवता और गुरु निंदा, वेद की निंदा से , अपवित्र भोजन से, विषम भोजन से ( दही-मुली- दूध मछली, दही-सिरका, घी-शहद समान परिमाण में हो , तामसी भोजन, बासी भोजन से ) . फोबिया से ( कोई अदृश्य भय सताये ) उन्माद, इन सबसे उन्माद होता है. बच्चों में दबाब से (जैसे परीक्षा पास करने का दबाव ) भी भय जनित उन्माद प्रकट हो सकता है.
ऐसे ग्रहीय उन्माद के लिए उन ग्रहों के कारकत्व के अनुसार देवताओं की पहचान करके उसका उपाय करना चाहिए. एक बार में यदि समस्या का समाधान नहीं होता तो उसका अनुष्ठान पुन: करना चाहिए. शास्त्रों में ऐसे विकट रोगों की चिकित्सा धर्मानुष्ठान ही बताया गया है.

