
विन्ध्य क्षेत्र में विन्ध्य पर्वत पर विराजमान मां विन्ध्यवासिनीआद्यशक्ति मानी जाती हैं. यह मन्दिर वैदिक काल से ही शक्ति पूजा का केंद्र रहा है. महाभारत आदि में इसका इसी प्रकार जिक्र आया है. प्रारम्भिक मत्स्य पुराण में भी विन्ध्यवासिनी का आद्य शक्ति के रूप में वर्णन मिलता है. सभी पुराणों में इनका विशेष वर्णन है. ललितासहस्रनाम में महात्रिपुर सुंदरी का एक नाम “विंध्यांचलनिवासिनी” है. यह भारत के गिने चुने शक्तिपीठों में प्रमुख पीठ है लेकिन यह सती के अंगों से जुड़े 51 शक्ति पीठ के अंतर्गत नहीं है. यह उन शक्तिपीठों से बहुत प्राचीन माना जाता है. श्री कृष्ण जन्म से जुड़ने के कारण यह शक्ति पीठ अन्य पीठों से और भी महत्वपूर्ण बन गया है.
विंध्यवासिनी मन्दिर कूर्माकार भूमि के त्रिकोण पर अवस्थित है इसलिए इसे महान सिद्ध पीठ माना गया है. कूर्म की पीठ के त्रिकोण के शीर्ष में गंगातट पर मां विन्ध्यवाशिनी (महालक्ष्मी, ईच्छा शक्ति) स्थित हैं, तत्पश्चात दो मील दूर काली खोह में महाकाली (क्रिया शक्ति) और फिर 1 मील दूर पर्वत पर अष्टभुजा (महासरस्वती, ज्ञान शक्ति) अवस्थित हैं. विन्ध्यवासिनी को कौशिकी भी कहते हैं. दुर्गाशप्तशती की कथा के अनुसार -शुम्भ-निशुम्भ से पीड़ित देवता जब देवी की प्रार्थना कर रहे थे. उसी समय पार्वती जी उधर से निकलीं और उन्होंने पूछा -‘आप लोग किस की स्तुति कर रहे हैं ?” उसी समय पार्वती के शरीर से तेजोमय देवी प्रकट हुईं और बोलीं-‘ये लोग मेरी स्तुति कर रहे हैं’. पार्वती के शरीरकोश से निकलने के कारण देवी का नाम कौशिकी हुआ. उन्होंने ही शुम्भ-निशुम्भ का वध किया. शुम्भ-निशुंभ के युद्ध में जब देवी क्रुद्ध हुईं तो उनके ललाट से भयानक मुख वाली चामुण्डा प्रकट हुईं, उन्होंने शुम्भ-निशुम्भ के सेनापति चंड-मुंड का बध कर दिया और रक्तबीज का रक्त पी गईं. यह चामुण्डा ही काली खोह की महाकाली हैं जो अपना विराट मुख ऊपर ऊपर की तरफ फैलाये हुए हैं. वहां के पंडे कहते हैं कि काली खेचरी मुद्रा में मुख आकाश की तरह ऊपर किये हुए हैं.

विंध्यांचल की यात्रा इस त्रिकोण की यात्रा किये बगैर पूर्ण नहीं होती, दर्शन भी पूर्ण नहीं माना जाता है. नवरात्रि में लाखों की भीड़ त्रिकोण की पदयात्रा करते हुए मिलती है. विंध्यवासिनी प्रारम्भिक वैदिक काल की देवी हैं या सम्भवत: उससे भी पूर्व इनकी पूजा की जाती थी. काली खोह विशेष रूप से तन्त्र के लिए विख्यात है. यहाँ बहुत बड़े बड़े साधकों ने अपनी साधनाएं सफल की हैं. तीन-चार दशक पहले काशी के अघोर मार्ग के साधक अवधूत राम ने यहाँ साधना द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी. यहाँ के लोग बताते हैं कि अपने साधना काल में वो पास के जंगल में पलाश के पौधों के बीच विष्ठा में बैठे रहते हैं. जब वे सिद्ध हुए तो उनके गले की माला कभी मुरझाती नहीं थी, बदन से दिव्य खुशबु निकलती रहती थी. यहाँ काली के आशीर्वाद से ही वे भारत वर्ष में सिद्ध के रूप में प्रसिद्ध हो गये.
विन्ध्यवासिनी देवी को आद्य शक्ति ही बताया गया है. एक कथा के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने मानव सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयंभूव मनु और शतरूपा को उत्पन्न किया. जब उनका विवाह हो गया तब स्वयम्भू मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया. उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया था. वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर प्रतिष्ठित हो गईं. इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है. वैष्णव ग्रन्थों में यह भी वर्णन मिलता है कि जब कंस देवकी की संतानों को एकएक करके मारने लगा तब वासुदेव को चिंता सताने लगी. उन्होंने अपने कुल गुरु गर्ग ऋषि को कारागार में बुलाया और समाधान पूछा. गर्ग ऋषि ने कहा कि आप चिंता न करें, मैं बिंदुवासिनी (विन्ध्यवासिनी) के दरबार में वहां लक्षचंडी यज्ञ करूंगा और मां की कृपा से आपको दीर्घजीवी संतान की प्राप्ति होगी. गर्ग ऋषि ने विंध्यांचल में शक्ति की घोर उपासना किया और लक्षचंडी यज्ञ किया. मां प्रसन्न हुई, उन्होंने वरदान दिया कि वे नंद के घर में अवतार लेंगी.

श्रीमद्भागवत पुराण की प्रसिद्ध कथा के अनुसार देवकी के आठवें गर्भ से जन्में श्री कृष्ण को वसुदेवजी ने कंस से बचाने के लिए रातोंरात यमुना नदी के पार गोकुल में नन्दजी के घर पहुंचा दिया था तथा वहां यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं आदि पराशक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा के जेल में ले आए थे. बाद में जब कंस को देवकी की आठवीं संतान के जन्म का समाचार मिला तो वह कारागार में पहुंचा. उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर पटककर जैसे ही मारना चाहा, वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में चली गईं और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित कर कंस के वध की भविष्यवाणी की और अंत में वह भगवती विन्ध्याचल में पुन: लौट आईं. भगवती ने भादो कृष्ण पक्ष द्वितीया को नंद के घर जन्म लिया और ठीक छह दिन बाद देवकी के गर्भ से कृष्ण जन्म हुआ.
नंदगोप गृहेजाता यशोदा गर्भसम्भवा।
ततस्तो नाश यष्यामि विंध्याचल निवासिनी।।
भगवती विन्ध्यवासिनीका नाम वनदुर्गा या अरण्या या अरण्य दुर्गा भी है. सर्वप्रथम यज्ञाग्नि भी अरणी से प्रकट हुई थी इसलिए भी उनका नाम अरण्या है. सहस्रनाम में देवी का यह नाम भी मिलता है. ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात है. यहाँ सिद्धों का सदैव आगमन होता रहता है. अनेक साधकों ने योगिनी शक्तियों को भी यहाँ ब्रह्म मुहूर्त की आरती में सम्मिलित होते देखा है. ऐसा माना जाता है कि जो कोई यहाँ ग्यारह शुक्रवार ब्रह्म मुहूर्त की मंगला आरती को देखता है उसकी ईच्छा आवश्य पूर्ण हो जाती है.
विन्ध्यवासिनी का प्राचीन नाम बिन्दुवासिनी भी बताया जाता है. यह नाम एक तांत्रिक सन्दर्भ लिए हुए है, तन्त्र में माना गया है कि समस्त सृष्टि का प्रसार बिंदु से ही होता है. बिंदु सृष्टि-सम्हार दोनों का ही प्रतीक है. इसलिए श्रीचक्र का वर्णन में यह आया है “बिंदुत्रिकोण वसुकोण दशारयुग्मं..” यह सृष्टि का बिंदु से क्रमिक विकास है.