
महाभारत अनुशासन पर्व में युधिष्ठिर को उपदेश करते समय गर्गाचार्य ने सरस्वती नदी के तट पर अपनी तपस्या और अपनी दस लाख वर्ष आयु का जिक्र किया है. गर्गाचार्य ने कृष्ण बलराम का नामकरण किया था. यह भागवत पुराण में वर्णन है –
ज्योतिषामयनं साक्षाद् यत्तज्ज्ञानमतीन्द्रियम् ।
प्रणीतं भवता येन पुमान् वेद परावरम् ॥
त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठ: संस्कारान्कर्तुमर्हसि ।
बालयोरनयोर्नृणां जन्मना ब्राह्मणो गुरु: ॥
प्रभो ! जो बात साधारणत: इन्द्रियों की पहुंच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित है, वह भी ज्योतिष शास्त्र द्वारा प्रतक्ष जान ली जाती है. आपने उसी ज्योतिष शास्त्र की रचना की है. आप ब्रह्म वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं इसलिए मेरे मेरे इन दोनों बालकों का नाम करण कर दीजिये क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्यमात्र का गुरु होता है.
गर्गाचार्य ने जिस समय तप की बात की थी उस समय सरस्वती नदी कलकल निनाद करते हुए बहती थी. उस समय ऋषिगण इसी नदी के तट पर समस्त यज्ञादि कर्म करते थे.
इस पर्व में तीन ज्योतिषवेत्ता आचार्यों असित देवल, गर्गाचार्य और पराशर के वर्तालाप हैं जिसका निम्नलिखित अनुवाद दिया जा रहा है —
असितो देवलश्चैव प्राह पाण्डुसुतं नृपम् ॥
शापाच्छक्रस्य कौन्तेय विभो धर्मोऽनशत् तदा ।
तन्मे धर्मं यशश्चाग्र यमायुश्चैवाददत् प्रभुः ॥
असित देवल ने पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिरसे कहा—‘कुन्तीनन्दन! प्रभो! इन्द्रके शापसे मेरा धर्म नष्ट हो गया था; किं तु भगवान् शंकरने ही मुझे धर्म, उत्तम यश तथा दीर्घ आयु प्रदान की’
गर्ग उवाच –
चतु:षष्ट्यङमददात्काल ज्ञानं ममाद्भूतं ।
सरस्वत्यास्तटे तुष्टो मनोयज्ञेन पांडव ।।
तुल्यं मम सहस्रं तु सुतानां ब्रह्मवादिनाम् ।
आयुश्चैव सपुत्रस्य संवत्सरशतायुतम् ॥
गर्ग ने कहा-
पाण्डुनन्दन! मैंने सरस्वतीके तटपर मानस यज्ञ करके भगवान शिवको संतुष्ट किया था। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे चौसठ कलाओं का अद्भूत काल ज्ञान प्रदान किया। मुझे मेरे ही समान एक सहस्त्र ब्रहावादी पुत्र दिये तथा पुत्रोंसहित मेरी दस लाख वर्ष की आयु नियत कर दी।
पराशर उवाच-
प्रसाद्येह पुरा शर्वं मनसाचिन्तयं नृप ।
महातपा महातेजा महायोगी महायशाः ॥
वेदव्यासः श्रियावासो ब्राह्मणः करुणान्वितः ।
अप्यसावीप्सितः पुत्रो मम स्याद् वै महेश्वरात् ॥
पराशर जी ने कहा- नरेश्वर! पूर्वकालमें यहां (सरस्वती नदी ) मैंने महादेवजीको प्रसन्न करके मन-ही-मन उनका चिन्तन आरम्भ किया। मेरी इस तपस्याका उदेश्य यह था कि मुझे महेश्वर की कृपा से महातपस्वी, महातेजस्वी, महायोगी, महायशस्वी, दयालु, श्रीसम्पन्न एवं ब्रहमनिष्ठ वेदव्यास नामक मनोवांछित पुत्र प्राप्त हो। मेरा ऐसा मनोरथ जानकर सुरश्रेष्ठ शिव ने मुझसे कहा-’मुने! तुम्हारी मेरे प्रति जो भवना है और जिस वर को पाने लालसा है, उसी से तुम्हें कृष्ण नामक पुत्र प्राप्त होगा।
सावर्णस्य मनोः सर्गे सप्तर्षि श्च भविष्यति ।
वेदानां च स वै वक्ता कुरुवंशकरस्तथा ॥
इतिहासस्य कर्ता च पुत्रस्ते जगतो हितः ।
भविष्यति महेन्द्रस्य दयितः स महामुनिः ॥
अजरश्चामरश्चैव पराशर सुतस्तव ।
एवमुक्त्या स भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ॥
’सावर्णिक मन्वन्तरके समय जो सृष्टि होगी, उसमें तुम्हारा यह पुत्र सप्तर्षि के पद पर प्रतिष्ठित होगा तथा इस वैवस्वत मन्वन्तरमें वह वेदों का वक्ता, कौरव-वंशका प्रवर्तक, इतिहासका निर्माता, जगत्का हितैषी तथा देवराज इन्द्रका परम प्रिय महामुनि होगा। पराशर! तुम्हारा वह पुत्र सदा अजर-अमर रहेगा।’युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महायोगी, शक्तिशाली, अविनाशी और निर्विकार भगवान शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।।
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