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नेपाल सीमा पर बारा जिला कलैया बरियारपुर में स्थित गढ़ीमाई का प्राचीन मंदिर विश्व भर में विख्यात है . इस विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक सिद्धपीठ को शक्ति , शौर्य , ऐश्वर्य और प्रसिद्धि की देवी माना जाता है. मन्दिर बहुत बड़ा नहीं है लेकिन यहां पर देशी-विदेशी लाखों पर्यटक मनाये जाने वाले उत्सव् को देखने के लिए दूर दूर से आते हैं. लाखों लोग देवी गढ़ी माई के दर्शन कर पूजा-अर्चना करते हैं और अपने भौतिक उत्थान की मन्नत मांगते हैं . देवी मंदिर के बाहर प्रांगड़ में हर पांच साल बाद पशु बलि का आयोजन किया जाता है. मंदिर के कंक्रीट से बने अहाते में बलि की शुरुआत मंदिर के प्रधान पुजारी द्धारा की जाती है. मंदिर के प्रधान  पुजारी को ” सप्तबली” नाम से पुकार जाता है. वास्तव में सप्तबली के अंतर्गत भैंसा के अतिरिक्त चूहा , कबूतर , मुर्गा , बत्तख और सुअर जैसे जीव आते है जिसको मंदिर का प्रमुख  पुजारी देवी रूप में स्वीकार करता है.

पिछले बलि आयोजन के आंकड़ों के अनुसार 5,000 से अधिक बलि पहले दिन ही दे दी गई थी,  कुल बलि पशुओं की संख्या 2 लाख तक पहुंच गयी थी. गढ़ीमाई के बलि स्थल में  मन्दिर द्वारा नियुक्त २०० लोग बलि कर्म को अंजाम देते हैं. हर पांच साल बाद ३ लाख से ५ लाख तक पशुओं की बलि दी जाती रही है. यह बलि प्रमुख रूप से महिष की होती है (जिसे जल महिष कहा जाता है) लेकिन उसकी बलि के साथ साथ  बकरी , मेष , सूअर , मुर्गा और कबूतर इत्यादि की भी बलि दी जाती है. बलि एक दिन नहीं पूरे महीनें भर चलता रहता है. इस दौरान की अफरातफरी और चीख पुकार दिल दहलाने वाला होता है, ऐसा लगता है मानो पूरा प्रांगण ही खून का तालाब बन गया हो. इस बलि का दृश्य बीभत्स होता है क्योंकि बहुतेरे तो वहां खून पीते हुए भी दिखते हैं. इस वीभत्स दृश्य और इसका खौफ का अनुमान वहां उपस्थित बच्चों की आँखों में देख कर लगाया जा सकता है. बलि में काटे गए पशुओं को पड़ोस के गावों में ले जाया जाता है जहाँ सारे गांव  के लोग उसे प्रसाद रूप में वितरित कर लेते हैं और अपने घर में पका कर खाते हैं. उनका मानना है कि यह प्रसाद अशुभ को ख़त्म कर उनके यहाँ शुभत्व ले आता है. इस बलि आयोजन के दौरान यह विश्व का सबसे बड़ा स्लॉटर हाउस बन जाता है.

गौरतलब है कि देवी के मंदिर में इस दौरान आये श्रद्धालुओं में और बलि करनें वालों  में ७०% उत्तर प्रदेश , बिहार और बंगाल से होते हैं क्योंकि इन राज्यों में बलि प्रथा पर कमोवेश बैन है. इन लोगों में मूलभूत रूप से गांवों के  किसान , श्रमिक , फैक्टरी में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या सबसे ज्यादा होती है . ये अज्ञानी लोग यह समझते हैं की मुर्गे की बलि मात्र से उनके सरे कष्ट मिट जायेंगे और देवी उन्हें ऐश्वर्य से भर देंगी!
पशु कल्याण और अंतर्राष्ट्रीय पशु अधिकार संस्थाओं ने जबरदस्त विरोध किया था. इस मॉस बलि का विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं में मेनका गांधी भी एक प्रमुख नाम है जिन्होंने  नेपाल सरकार को पत्र लिख कर इस बलि को रोकने का अनुरोध किया था. नेपाल सरकार ने 2015 में इसको रोकने के लिए आदेश जारी किया था लेकिन वह उसे क़ानूनी रूप से लागू नहीं किया गया. यह उत्सव नेपाल के मधेशी लोगों का एक सबसे प्रमुख त्यौहार है इसलिए इसको रोकना कमोवेश असम्भव् है. नेपाल के पशु अधिकार  कार्यकर्ता रामबहादुर बोम्जो को अब भी आशा है कि नेपाल के लोग इस वीभत्स कर्मकांड का विरोध करेंगे और इससे मुक्त होकर देवी की सात्विक भक्ति की तरफ जायेंगे.

हिन्दू धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है. वास्तव में यज्ञ में भी पशु हिंसा का कहीं कोई ज्यादा बड़े प्रमाण नहीं मिलते. वैदिक कोष- निरुक्त २.७ यज्ञ को ‘अध्वर‘ कहता है अर्थात हिंसा से रहित (ध्वर=हिंसा). पशु हिंसा ही क्या, यज्ञ में तो शरीर, मन, वाणी से भी की जाने वाली किसी हिंसा के लिए स्थान नहीं है. वेदों के अनेक मन्त्र यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग करते हैं. यज्ञ में वैदिक मन्त्र ही पढ़े जाते थे और अग्नि में घी, दूध, दही, जौ, इत्यादि  की ही आहुति दी जाती थी, किसी अन्य अमिष तत्व की नहीं. वास्तव में पशु याग का अर्थ पशु से नहीं बल्कि पाशविक चित्तवृत्तियों से है.  देवता के समक्ष इन वृत्तियों की ही बलि दी जानी चाहिए, यही शास्त्र सम्मत है. उपनिषदों के अनुसार -“कामक्रोधलोभादयः पशवः ” अर्थात काम, क्रोध और लोभ इत्यादि ही पशु हैं, इन्हीं का यज्ञ में हवन करंना चाहिए. शैवागम में भी पशु का तात्पर्य इन्हीं मनोवृत्तियों से है। ऋग्वेद में तो पशु हत्या मात्र  निषेध है : “माँ नो गोषु , माँ नो अश्वेषु रिरिषः-ऋग्वेद १ /११४/८ ” हमारी गायों और घोड़ो को मत मारो. सामवेद में भी यह एक एकदम  स्पष्ट है ” न कि  देवा इनिमसि न क्या योपयामसि । मन्त्र श्रुत्यं चरामसि ” अर्थात हे देव ! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं,  हम वेद मन्त्र के अनुसार आचरण करते हैं “. वैष्णव पद्मपुराण में देवी पार्वती स्वयं पशु बलि का विरोध करती हुई कहती हैं ” जो व्यक्ति मेरी पूजा के विचार से प्राणियों का वध करते हैं वह  पूजा अपवित्र है.  इस हिंसा से निश्चय ही उनकी अधोगति होती है. हे शिव तामसिक वृत्ति के लोग ही ऐसा दुष्कृत्य करते हैं. करोड़ों कल्प तक उनका नरक में वास होता है इसमें कोई संशय नहीं है.” हलांकि अन्य शैव और शाक्त पुराणों में बलि, मांस, मदिरा इत्यादि का प्रवर्तन भी किया गया था. अनेक वैष्णव पुराणों में भी इसका वर्णन है और लोक-वेद का एक द्वैत भी है जिसमें एक संघर्ष की स्थिति है. रामकृष्ण परमहंस ने बलि को शास्त्रानुसार करने में बुराई नहीं देखी और उन्होंने यह बात कई जगह कही है.

यज्ञ का मतलब “अध्वर” होता है मतलब हिंसा रहित. यज्ञ के ब्राह्मण का पद अध्वर्यु इस “अध्वर” से ही आया है अर्थात अध्वर्यु वह होता है जो यज्ञ में इस बात को प्रमुखता से देखता है कि कहीं यज्ञ में किसी तरह की हिंसा न हो, यहां तक वाक् की हिंसा तक को महापातक माना गया है. स्पष्ट है यह श्रुतियों के खिलाफ है. सनातन हिन्दू धर्म श्रुति सम्मत है, इसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं. लेकिन सनातन हिन्दू धर्म में मध्ययुग में तन्त्र के उत्थान के दौर में वह सब कुछ किया जाने लगा जो श्रुति सम्मत नहीं था. आदि शंकराचार्य ने तन्त्र की भी शुद्धि की थी और सात्विक तन्त्र का प्रवर्तन किया था. यह सात्विक तंत्र ही श्रेय है.