Spread the love

सनातन धर्म दैवी सम्पद की वृद्धि के लिए उद्योग करता है. सनातन धर्म का यह मानना है कि दैवी सम्पद ही मनुष्य और संसार का कल्याण करने में सक्षम है. इस गुण की वृद्धि के लिए ही संतो और भगवान का अवतार होता रहा है. जब तक उनकी आध्यात्मिक शक्ति कार्य करती है, तब तक संसार में आध्यात्मिक भाव की वृद्धि होती रहती है और समाज में सुख शांति प्रकट रूप से दिखाई पड़ती है. भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है कि दैवी सम्पदा मोक्ष के लिए और आसुरी सम्पदा बन्धन के लिए मानी गयी है. प्रजापति ने दो ही प्रकार की भूत सृष्टि की थी – दैवी और आसुरी. इसमें दैवी सम्पद सम्पन्न वे मनुष्य है जो लोककल्याण की भावना से सत्कर्म करते हैं, पुण्य करते हैं और ईश्वर में अपने मन-बुद्धि का निवेश करते हैं. उनका उद्देश्य आत्मकल्याण के साथ जगत कल्याण भी रहता है.

आदिति के पुत्र देवताओं में सोचा कि हमें ऊपर उठना चाहिए और दैवी भाव में स्थित होकर ईश्वर से एकत्व स्थापित करना चाहिए क्योंकि यही एकमात्र अमृत का रास्ता है जिससे हमारा देवभाव से पतन नहीं होगा. दूसरी तरफ दिति के पुत्रों ने सोचा कि ये देवता ऊपर न उठ सके और अमर न हो सके इसलिए इन्हें घसीट कर नीचे गिराओ. दैत्य आज भी यही करते हैं. मनुष्य को घृणा, विद्वेष, हिंसा में झोंक कर अपने स्तर तक गिराते हैं. असुर मनुष्यों को भौतिकवादी बनाते हैं और कहते हैं कि देह ही सब कुछ है. भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि असुरों का दृढ़ विश्वास है कि यह सृष्टि सेक्स से उत्पन्न हुई, इसका कोई दूसरा कारण नहीं.
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।।
असुर बुद्धि का मनुष्य असत्य में प्रतिष्ठित होता है. असत बुद्धि के कारण वह भौतिकवादी होता है और धन, स्त्री आदि को अंतिम सत्य मानता है और उसके लिए ही सारे कर्म करता है. वह मानता है कि सृष्टि केवल स्त्री-पुरुषके संयोगसे पैदा होती है. इसलिये काम ही इसका कारण है, और कोई कारण नहीं है. वह चार्वाक मत के अनुसार चलता है और भोग को ही अंतिम सत्य मानता है. इस मत के अनुसार ही पाश्चात्य चिन्तन चलता है. आधुनिक काल में जितने प्रसिद्ध पाश्चात्य चिंतक हुए जैसे थॉमस हॉब्स ,जॉन लोके, डेविड ह्यूम, सिगमंड फ्रायड, कार्ल मार्क्स इत्यादि सबका मत मूलभूत रूप से आसुरी मत ही है. सिगमंड फ्रायड ने सेक्स को ही अंतिम सत्य माना. पूंजीवाद भी आसुरी मत पर ही चलता है और भोग प्राप्ति के लिए किसी हद तक चला जाता है. पूंजीवाद ने इसके लिए फासिज्म जैसी घृणित विचारधारा को भी गले लगाया जिसके कारण दुनिया भर में मॉस मर्डर हुए. आसुरी बुद्धि वाले उदात्त आध्यात्मिक मूल्यों को तरजीह नहीं देते. भगवद्गीता स्पष्ट कहती है कि नास्तिक दृष्टि का आश्रय लेनेवाले मनुष्यों की बुद्धि तुच्छ है, ये उग्रकर्मा और संसारके शत्रु हैं. ऐसी बुद्धि रखने वाले मनुष्यों की सामर्थ्यका उपयोग जगत का नाश करनेके लिये ही होता है.

आसुरी बुद्धि का बेध यहां तक होता है कि अत्यंत विद्वान भी कैसी समय हिंसा बुद्धि वाला हो जाता है और भौतिकवाद को ही अंतिम सत्य मानता है. पितर पूजा इस मत का एक दूसरा पहलू है. पितृपूजक इस मत को मानते हैं कि यह लोक ही अंतिम सत्य है, हमारा बायोलॉजिकल अस्तित्व सदैव बना रहना चाहिए. यह सोच मिथ्या दृष्टि और तमोगुण से उत्पन्न होता है. वेदों के अंत भाग जिसे उपनिषद कहते हैं, वह वेदों का निष्कर्ष है इसलिए सनातन धर्म में इसे सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है. ईशावस्योपनिषद कहती है –
“अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।” कर्म मार्ग से पितृलोक की प्राप्ति होती है ‘कर्मणा पितृ लोक:” ऐसी श्रुति भी है. यह दक्षिणायन मार्ग है इसलिए कहा “अन्धकार में गिरना है”. ईशावस्योपनिषद मन्त्र में कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करे, कह कर, साथ में यह भी कहा गया है कि कर्मफल के त्याग पूर्व कर्म करे, इसके इतर कोई मार्ग नहीं है अथवा दूसरे अर्थ में कर्म के साथ आत्मोपासना अर्थात ईश्वर उपासना को जोड़े, ईश्वर के निमित्त कर्म करे. यदि कर्म को अनासक्ति योग की तरह करें तो कर्म का कोई दोष नहीं होगा और मनुष्य घोर अन्धकार में नहीं गिरेगा. उसके लिए उत्तरायण का ब्रह्मलोक का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा.

यदि मनुष्य पितरो के निमित्त ही कर्म करता है और सांसारिक मनोभाव बनाये रखता है कि यह लोक ही अंतिम है, तो वह अंधकार में गिरता है और उसका पतन होता है. उपनिषद में यह प्रसंग है कि सृष्टि के पहले यज्ञकर्ता प्रजापति को कर्म के बाद यह अनुभव हुआ कि आत्मज्ञान ही अंतिम सत्य है जिससे मृत्यु से पार जाया जा सकता है. प्रजापति ने आत्मज्ञान को असुरत्व का प्रतिबाधक माना और देवताओं संग कर्मज्ञानभावना रूपवृत्ति को ऊपर उठाने के लिए आत्मोपासना में प्रवृत्त हुए. यही उपनिषद में देवताओं की जय और असुरो की पराजय कहा गया है. शास्त्रों में कहा गया है कि निम्न मानसिक धरातल और सोच पर चलने वालों की अधिकता होने से असुरों की संख्या ज्यादा है.

हिन्दू धर्म में पुराण पुजारी-कथावाचक वर्ग निम्न मानसिक धरातल पर चलने वाला वर्ग है इसलिए उनमे असुरत्व का बेध रहता है. यह वर्ग ही अक्सर धर्मक्षेत्र में पापत्व की वृद्धि और पतन के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी होता हैं. ईश्वर से एकात्म स्थापित कर निम्न मनोवृत्तियों से ऊपर उठने को ही धर्म और आध्यात्म कहा जाता है. इसके विपरीत बुद्धि सदैव आसुरी होती है और देश तथा समाज के पतन का कारण बनती है. जब असुरों ने जर्मनी के बुद्धिमान लोगों की बुद्धि का भी नाश कर दिया तो जर्मनी का पतन हो गया और 40 लाख लोग मारे गए. यह असुरों का कार्य था. फासिस्ट असुर ही होते हैं चाहे वो नाजी हों या हिंदुत्व फासिस्टस हों या कम्युनिस्ट हों.
धर्म कार्य में देवता सदैव संलग्न रहते हैं और वे मनुष्य भी संलग्न रहते हैं जिनमें दैवी संपद होती है. भगवद्गीता में कृष्ण ने अर्जुन से यही कहा कि तू चिंता मत कर, तू दैवी संपत वाला है. दैवी सम्पत वाले का किसी काल में पतन नहीं होता.