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दशा अंतर्दशा में, शनि के चंद्र राशि पर  गोचर में  शनि का अशुभ प्रभाव हर व्यक्ति पर कभी न कभी जरूर पड़ता है।  शनि की ढैय्या हर व्यक्ति  के जीवन काल में एक न एकबार अवश्य आती  है। इसलिये सभी राशियों के जातकों को उस समय विशेष सावधान रहना चाहिए । प्रतिदिन शनिदेव की पूजा- अर्चना, स्तोत्र पाठ और मंत्र जप करने से शनि देव के अशुभ प्रभावों से अवश्य  ही  बचा जा सकता है। शनि देव महाराज को प्रसन्न करने का सबसे सरल उपाय है प्रतिदिन दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ । इस दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ करने से शनिदेव बहुत ही जल्द प्रसन्न होते हैं।

पुराण कथाओं एवं मान्यताओं के अनुसार भगवान श्री राम के पिता राजा दशरथ ने अकाल के भय से शनि देव को प्रसन्न करने के लिए इस स्तोत्र की रचना की थी। इस स्तोत्र का पाठ करने से राजा दशरथ से भगवान शनिदेव प्रसन्न हुए थे और उन्हे अभय और वरदान प्रदान किया था

दशरथकृत शनि स्तोत्र

दशरथ उवाच 

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः ॥

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन् ।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ॥

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं ।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम् ॥

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा ।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ॥

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च । (1)
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥

जिनके शरीर का रंग भगवान् शंकर के समान कृष्ण तथा नीला है उन शनि देव को मेरा नमस्कार है। इस जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप शनैश्चर को पुनः पुनः नमस्कार है।। जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट तथा भयानक आकार वाले शनि देव को नमस्कार है।।

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: । (2)
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥

जिनके शरीर दीर्घ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु जर्जर शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार नमस्कार है।। हे शनि देव ! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते । (3)
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥

सूर्यनन्दन, भास्कर-पुत्र, अभय देने वाले देवता, वलीमूख आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, ऐसे शनिदेव को प्रणाम है।। आपकी दृष्टि अधोमुखी है आप संवर्तक, मन्दगति से चलने वाले तथा जिसका प्रतीक तलवार के समान है, ऐसे शनिदेव को पुनः-पुनः नमस्कार है।।

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च । (4)
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥

आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सर्वदा सर्वदा नमस्कार है।। जसके नेत्र ही ज्ञान है, काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण क्षीण लेते हैं वैसे शनिदेव को नमस्कार ।।

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: । (5)
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥

देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते ऐसे शनिदेव को प्रणाम।। आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।। राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले- ‘उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं भी अत्यन्त सन्तुष्ट हूं। रघुनन्दन! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा

दशरथ उवाच:

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम् ।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित् ॥