दन्तेश्वरी मन्दिर छत्तीसगढ़ के दन्तेवाड़ा में स्थित एक शक्तिपीठ है जो दन्तेश्वरी देवी को समर्पित है. इस मन्दिर का निर्माण १४वीं शताब्दी में हुआ था. दन्तेवाड़ा जिले का नाम देवी दन्तेश्वरी के नाम पर ही पड़ा है. ये देवी छत्तीसगढ़ की सबसे महत्वपूर्ण देवी हैं और पूर्व काकतीय राजाओं की कुलदेवी रही हैं. मंदिर का इतिहास हजारों साल पुराना माना जाता है, इस मन्दिर 800 साल पहले वारंगल के चालुक्य नरेश अन्नमदेव ने जीर्णोद्धार कराया था. ये सम्पूर्ण बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी दंतेवाड़ा में शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम तट पर स्थित हैं. मान्यता के अनुसार दंतेश्वरी शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है. माना जाता है कि माता सती का दांत यहां गिरा था, इसलिए यह दंतेश्वरी शक्तिपीठ कहलाता है. हलांकि ऐसा कोई शास्त्रीय प्रमाण प्राप्त नहीं होता.
मां दंतेश्वरी को विशेष अवसरों दशहरा एवं फाल्गुन में मंड़ई के मौके पर गार्ड आफ आनर दिया जाता है और सम्मान में हर्ष फायर की पंरपरा निभाई जाती है. दन्तेश्वरी शक्तिपीठ में प्रतिष्ठित मां दंतेश्वरी की मूर्ति जिस शिला में उकेरी गई है, उसके ठीक ऊपर नृसिंह भगवान की मूर्ति है. देवी का विग्रह षट् भुजा हैं जो दायें हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशूल और बाएं हाथ में घंटी, पद्म, राक्षस के बाल पकड़ी हुई हैं. मन्दिर के सामने गरुड़ स्तंभ स्थापित है. भगवान नृसिंह विष्णु अवतार हैं, इसलिए प्रति वर्ष दीपावली के दिन मां दंतेश्वरी की माता लक्ष्मी के रूप में विशेष पूजा होती है. मां दंतेश्वरी शक्तिपीठ प्रक्षेत्र को आठ भैरव का निवास स्थल माना जाता है. इन आठ भैरवों को आठ भाई कहा जाता है. नदी किनारे इनकी स्थिति होने से यहाँ तंत्र साधना भी किया जाता है और अठारहवी शताब्दी तक यहाँ नर बलि भी दी जाती थी.

इस शक्ति पीठ में प्रमुख दो नवरात्रि के आलावा फागुन मड़ई के नाम से भी एक पर्व होता है जो नवरात्रि की तरह ही नौ दिन तक चलता है. इसे आखेट नवरात्र कहा जाता है. देवी के नौ रूपों के सम्मान में नौ दिन माईजी की डोली निकाली जाती है और इस मौके पर आसपास के 600 से ज्यादा गांवों के देवी-देवता शक्तिपीठ में आमंत्रित किए जाते हैं. यहाँ सीले हुए वस्त्र पहन कर दर्शन नहीं किया जाता, लुंगी या धोती पहन कर ही दर्शन किया जा सकता है. यह सम्पूर्ण बस्तर का सबसे महत्वपूर्ण और आस्था का केंद्र है.

