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गोभिः श्रीणीत मत्सरम ..ऋग्वेद

जहाँ तक सूर्य की रश्मियाँ हैं वहां तक गौ ही है । ऋग्वेद का यह मानना है कि जो कुछ भी गौ से सम्बंधित है वह इस परम आनन्दमय सोम में निहित है अर्थात गौ का जो कुछ है उसमें भी सोम निहित है । गो सोम एक अमोघदायिनी शक्ति है इसने न केवल इन्द्र को अमोघ बनाया बल्कि इसके मातृत्व में ऋषियों नें  भी अमृतत्व पाया है । यदि देखें तो श्री कृष्ण भी उस वैदिक बालक सत्यकाम  की तरह ही गोचारण करते हुए योगेश्वर हुए थे! वेदों में “गौ” अनेकानेक अर्थों को अभिव्यंजित करता है-कहीं यह सोम और ऋत है तो कहीं यह प्राण है, कहीं यह वाणी है तो कहीं यज्ञपदी––सब कुछ समाहित करते हुए यह गौ भगवान् की ही तरह विश्वमय है । “एतद् वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरुपम्” ऐसा शौंनक संहिता का कहना है।

गौ की प्राण और वाणी से एकरूपता है । जिसतरह वाणीस्वरूप गायत्री चतुष्पदा है उसी तरह विश्व मातर गौ भी चतुष्पदा है जिसके रोम रोम में देवत्व प्रतिष्ठित है । गौ की गायत्री से एकरूपता है इसलिये गौ को भी सावित्री कहते हैं । जिसने इस शक्ति का वरण किया उसने अमृतत्व पाया । गौ माता भी उस सविता देवता की ही शक्ति हैं इसलिये इनका वरण ऋषिगण गायत्री की ही तरह हर कर्म में करते हैं “तत् सवितुरवरेण्यं” । हिंदूओं का कौन सा ऐसा धार्मिक कृत्य है , कौन सा संस्कार है जिसमें गौ और गायत्री प्रतिष्ठित नहीं हैं? गौ और गायत्री हिंदू संस्कृति और आध्यात्म का आधार स्तम्भ हैं । जिस तरह वाणी को शुद्ध रखते हैं उसी तरह गाय भी सदा शुद्ध और पालनिया है । इनके अध्यात्मिक स्वरूप का ज्ञान ऋषियों और देवों को ही था जिसको जान कर वे समय समय पर असुर प्रभाव को निरस्त कर पृथ्वी पर सत्य और ऋत को स्थापित करते रहे थे । जब पृथ्वी पर ऋत और सत्य नहीं रहते तो धर्म क्षीण होने लगता है, मनुष्य सुख और शांति को खोकर चांडालवत विचरण करता हुआ है, वह स्वयं को तो कष्ट पहुंचाता ही है, साथ ही साथ जगत् को भी कष्ट पहुंचाता है । गौ भी गायत्री की ही तरह वेदमूर्ति है ।

चिदसि मनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियास यज्ञियास्यदितिरस्युभयत: शीव्णीं।॥ सा नः सुप्राची सुप्रतीच्येधि मित्रस्त्वा यदि बध्नीतां पूषाध्वनस्पात्विन्द्रायाध्यक्षाय ॥ अनु त्वा माता मान्यतामनु पिताऽनु भ्राता सगर्भ्योऽनु सखा सयुथ्य: सा देवि देवम्च्छेहिन्द्राय सोमं रुद्रस्त्वा वर्त्त्यतु स्वस्ति सोम सखा पुनरेहि|| -यजुर्वेद ४|11-२०

हे सोमक्रायणी गौ  तुम चिदात्मा हो , बुद्धिरुपा हो, मनः स्वरूपा हो , दक्षिणारूप हो , दाता की कष्ट से रक्षा करने वाली हो, यज्ञसंबंधिनी होने से तुम ही यज्ञ के योग्य हो , देव माता अदिति स्वरूपा हो तुम ,तुम पृथ्वी और स्वर्ग दोनों को सिर पर धारण करती हो । तुम हमारे लिए पूर्वमुखी पश्चिम मुखी होओ ! सूर्य दक्षिण पाद से तुमको बांधे । पूषा देवता यज्ञ के स्वामी इन्द्र की प्रसन्नता के लिए मार्ग में तुम्हारी रक्षा करें! हे वाणी रूप गौ । सोम लाने में प्रवृत्त तुमको पृथ्वी माता आज्ञा दे, स्वर्ग पिता आज्ञा दे, सहोदर भाई ईश तुम्हे आज्ञा दे, समूह में प्रकट होने वाला आत्मप्रतिबिम्ब सखा तुम्हें आज्ञा दें । हे दिव्य गुणोंवाली सोमक्रायणी गौ। तुम इन्द्र के लिए सोमलता लेने जाओ। रूद्र देवता तुमको पुनः हमारी तरफ लौटावें, सोम को लेकर तुम क्षेमपूर्वक पुनः हमारे पास आ जाओ।

इस तरह यह मन्त्र न केवल उनकी सोमरूपता को सिद्ध करता है बल्कि उनकी वाणीरूपता को भी सिद्ध करता है!   पृथ्वी रूपी गौ सुवर्णमय कल्पित हैं क्योकि मूलाधार तत्व सुवर्णमय है ! यह सुवर्ण पृथ्वी का अग्नितत्व  है फिर यही हमारी देह का अग्नितत्व भी है। यही श्री तत्व भी है!’ अग्निहिं देवताः सर्वाः सुवर्णश्च “! सुवर्ण के कारण ही पृथ्वी वसुमती कहलाती हैं और सुवर्णमयी होने के कारण ही गौ माता वसुओं की कन्या कहीं गई है । गौ ही पृथ्वी है, गौ ही आदित्य भी है “गौरिती पृथिव्या नामधेयम् ,आदित्योऽपि गौरुच्य्ते” !  गौ के दुग्ध, घी, मूत्र और गोबर में सुवर्ण की प्रतिष्ठा मानी जाती है । जिस प्राण को गौ माता अपनी देह में धारण करती हैं वह सूर्य सम्बन्धी प्राण है, उनका जन्म ही आदित्य प्राण से हुआ है।आदित्य भी गौ है और गौ भी आदित्य ही है “आदिया वा गाव:” ऐसी एक ऐतरेय श्रुति भी है।  शायद इसीलिए कहा गया है कि गौमूत्र और गोबर में हिरण्यमयीं लक्ष्मी का निवास है।
ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।
इस श्रीसूक्त का मन्त्र से साक्षात् लक्ष्मीरूप गौ की पूजा करना कर्तव्य होना चाहिए । लक्ष्मी जातवेदस हैं उसी तरह गौ भी जातवेदस ही कहीं गई है क्योकि गौ ब्रह्म के तेज से प्रकट हुईं हैं । इस लक्ष्मीरूप गौ माता के स्तनों का दूध कौन नहीं पीना चाहता, कौन इनसे  ब्रह्म तेज को प्राप्त नहीं करना चाहता? देववर्ग और ऋषिवर्ग से लेकर मनुष्य तक सभी इनके पय: का पान करते हैं । साध्य और वसुगण भी गाय का दूध पीते हैं , उसकी पूजा करते है । दूध की स्वर्ग में प्रतिष्ठा है । देव और मनुष्य दोनों गौ से पैदा होते हैं, गौ द्वारा ही जीवन धारण करते हैं और गौ से ही शक्ति और ब्रह्मवर्चसम की प्राप्ति करते हैं! गौ का हमारे इदगिर्द अस्तित्व मात्र हमें आध्यात्मिक बनाता है और हमें स्वरुपावस्थान के लिए प्रेरित करता है । ऋषियों ने इसीलिए गोमती को ही श्रीमती कहा है । गोमती तो एक वैदिक चिकित्सा की एक गुह्य विद्या भी है । गौ माता इस पृथ्वी पर दिव्य चेतना की प्रसरिका हैं इसलिये महर्षि वशिष्ठ नें गौ माता को देवकार्य में भाग-ग्रहणकारिणी माना है।

वैदिक साहित्य में गौ अपने वैभव में इतनी अलंकृत और आध्यात्मिकतः इतनी व्यापक है कि वह ऋचाओं के बड़े भाग को समाहित करती है ।
ऋग्वेद का यह मन्त्र गौ के बारे में सब कुछ कह देता है :
गावो भगो गाव इन्द्रो में अच्छान् |
गावः सोमस्य प्रथमस्य भक्षः ||
इमा या गावः स जनास इन्द्र |
इच्छामीद् धृदा मनसा चिदिन्द्रम् ||

गौ ही भग देवता है, गौ ही मेरे लिए इन्द्र है, गौ ही सोमरस की पहली घूंट है, ये समग्र गायें इन्द्र की प्रतिनिधि हैं। मैं हृदय से इसी इन्द्र को चाहता हूँ । भारद्वाज ऋषि की यह ऋचा जो कहती है वही हम भी चाहें !

अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यन्गिघ्ररेणुभिः ..

गोचरण रज उड़-उड़ कर परब्रह्म के श्री अंगों को पूरित करती है ,पूत करती है, ब्रह्म भी अपने को धन्य मानते है !
अर्थात गौ की चरण रज से पवित्र क्या है ?

Article was written 10 years ego. I found it in my hard disk .