
ज्योतिष से सम्बन्धित पुराणों में शनि इत्यादि ग्रहों की कथाएं प्रसिद्ध हैं. ज्योतिष सम्बन्धित कथा में आता है कि शनि ग्रह बोला. अब शनि एक जड़ ग्रह पिंड है वो कैसे बोल सकता है? यह कहा जा सकता है कि किसी जड़ पदार्थ को लोक में कभी बोलते नहीं देखा गया है!. महाभारत में युधिष्ठिर को सरोवर के किनारे यक्ष मिल गया. एक यक्ष ने एक सरोवर का अधिग्रहण कर लिया था. जल में वरुण देव का निवास है, यक्षादि राक्षस कुल की योनियाँ हैं जो राहु द्वारा शासित हैं. कोई शक्तिशाली यक्ष साधना द्वारा सरोवर का अधिग्रहण कर उसमे निवास करने लगा था. यदि कोई उस सरोवर से जल लेने आता था तो वह उससे प्रश्न पूछता था, जो उसका उत्तर नहीं दे पाता था उसकी मृत्यु हो जाती थी. यक्ष की इसी कथा में युधिष्ठिर की मुलाकात उस यक्ष से हुई जिसमें उसने अनेक प्रश्न किये. जब युधिष्ठिर ने सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिए तो वह प्रसन्न हो गया और उसने मृत पढ़े पांडव भाइयों को पुन: जीवित कर दिया. इसी प्रकार वैदिक श्रुतियों में आता है “मृदब्रवीत” पृथ्वी बोली, “आपोSब्रुवन” जल ने कहा, ” तत तेज: एक्षत ” अग्नि ने इच्छा किया या जल ने संकल्प लिया. अब क्या जड़ पदार्थ बोल सकता है? नहीं बोल सकता, लोक में कभी ऐसा नहीं देखा गया.
श्रुतियों में इसका तात्पर्य यह है कि उन पंच भूतों के अभिमानी देवता बोल रहे हैं. अभिमानी देवताओं को सूचित करने के लिए ही श्रुति में कहा गया है “अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत् इति”. शनि का जो अभिमानी देवता है, वह बोलता है या किसी ग्रह का जो अभिमानी देवता है वह बोलता है. भगवद्गीता के उदाहरण से इसे समझते हैं. मृत्यु के सम्बन्ध में जीवात्मा की गति का वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं –
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।8.25।।
जिस मार्गमें धूमका अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छः महीनोंवाले दक्षिणायनका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गया हुआ सकाम मनुष्य योगी पुण्यात्मा, चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्म-मरण को पुन: प्राप्त होता है.
यह पितृलोक को प्राप्त जीवात्मा के बारे में भगवान ने कहा. वह जीवात्मा अपने अर्जित पुण्य कर्म के अनुसार पहले धूम्र के अधिपति देवता को प्राप्त होता है, फिर रात्रि के अधिपति देवता को फिर क्रम से कृष्ण पक्ष के अधिपति देवता , अयन के अधिपति देवता को प्राप्त होता है और वे देवता उसे चन्द्र की उस ज्योति को प्राप्त करा देते हैं जिसका सम्बन्ध पितरो से है. वे पितर उसका स्वागत करते हैं और उसे उसके कर्म के अनुसार भोग आदि प्रदान कर पुनः भगवान के आदेशानुसार वापस भेज देते हैं.
यहाँ जिस प्रकार अभिमानी देवताओं का वर्णन है वैसे ही ब्रह्मलोक को जाने वाले योगियों के लिए भी वर्णन है –
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24।।
जिस मार्गमें प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता, दिनका अधिपति देवता, शुक्लपक्षका अधिपति देवता, और छः महीनोंवाले उत्तरायणका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं.
यहाँ अग्नि का अभिमानी देवता का वर्णन है अर्थात जो दाहिका शक्ति अग्नि में हैं, सूर्य में है वह इस अभिमानी अग्नि देवता द्वारा नियंत्रित है. इसमें आदित्य देवता प्रमुख कारण हैं क्योकि सूर्यदेवता ही ब्रह्म लोक का मुख हैं और अग्नि तो देवताओं का मुख हैं ही. देवता अग्नि के मुख से ही यज्ञ में प्रदान की गई अपनी आहुतियाँ प्राप्त करते हैं. अग्नि में पितरों के लिए आहुति नहीं दी जाती. ये अभिमानी देवता दिव्य पुरुष हैं जिन्हें अनेक महान पुण्य के कारण भगवान द्वारा यह पद दिया गया है. ये देवगण भगवान के अलग अलग मंत्रालयों के मंत्री, उपमंत्री और कलेक्टर इत्यादि हैं. यह देवता अपने पद से कभी कभी ऋत के नियमों के विरुद्ध कर्म के कारण पतित भी हो जाते हैं और पुन: उनका पुण्य से उद्धार होता है और वे पुन: अपना पद प्राप्त कर लेते हैं.
इसी प्रकार से ग्रहों के देवता,अधिदेवता और प्रत्यधि देवता है जिनके द्वारा ग्रह शासित हैं और ग्रहों में वे देवता ही बोलते हैं. शनि बोला? मतलब उसके अधिदेवता या प्रत्यधि देवता ने ईश्वरीय नियमों ( धर्म ) के अनुसार कुछ कहा. शनि उन देवताओं के अनुसार ही फल प्रदान करता है. शनि कृष्णपक्ष का प्रमुख ग्रह है इसलिए यह रात्रि में बलवान होता है, दक्षिणायन के छ: महीनों में बलवान होता है. यह कृष्ण विग्रह है क्योंकि इसका सब कुछ काला है. यह दक्षिणायन का शासक आवश्य है लेकिन इसकी राशि उत्तरायण में पड़ती है और मकर संक्राति से सूर्य इसी की राशि से उत्तर में देवताओं में मंडल में प्रस्थान करते हैं. यह एक कारण है कि बंधन और मोक्ष दोनों में शनि एक प्रमुख ग्रह है. एकतरफ दक्षिणायन में यह दुःख कारक बन कर पीड़ित करता है, बंधन करता है तो दूसरी तरफ उत्तरायण में काल पुरुष का लग्न स्वामी उच्च भाव को प्राप्त करता है. भगवद्गीता का श्लोक 8:25 को शनि से भी जोड़ कर देख सकते हैं और शनि के आध्यात्मिक कारकत्व को समझ सकते हैं. पितृपक्ष जिस कृष्ण पक्ष से शुरू होता है उसकी प्रतिपदा कुम्भ राशि में पूर्वभाद्र नक्षत्र (दोनों भाद्रपद नक्षत्र द्वै हैं) में होती है और उसका अंत सूर्य सिंह राशि में यम नक्षत्र के शासक शुक्र के पूर्वफाल्गुनी (दोनों फल्गुनी नक्षत्र द्वै हैं) में अमावस्या में होता है. शनि भी पितृकारक है और शनि की पूजा पितरो के निवास स्थान पीपल में की जाती है. यदि इस प्रकार से देखें तो भगवद्गीता के दोनों श्लोको का तात्विक अर्थ समझ में आएगा. इसके इतर इन दो श्लोको का एक अति सूक्ष्म और अति रहस्यमय स्वरूप भी है जो तत्वज्ञानी ही जान सकता है.