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शास्त्रों में कहा गया है कि ज्योतिष काल को हस्तगत करने की विद्या है। वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति, घटना, विचार, भाव -इन सब पर काल का गहरा प्रभाव होता है। कोई विशेष विचार, विशेष भाव किसी विशेष काल में ही उत्पन्न होकर संसार को ग्रसता है। काल की गति का एक उदाहरण एक युग से दूसरे युग में संक्रमण है। सनातन धर्म के अनुसार चार युगों की पुनरावृत्ति होती रहती है। यह काल ही सृष्टि का जनन और विध्वंश करता है। स्वयं भगवान कहते हैं –

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।
हे कुन्तीनन्दन ! कल्पोंका क्षय होनेपर सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ। फिर वही भगवान कहते हैं – मैं सबका बढ़ा हुआ काल हूँ, सबका नाश करने आया हूँ ।

युग परिवर्तन होता है या एक युग का दूसरे युग में संक्रमण होता है तो संसार में  बहुत उठापटक की स्थिति आ जाती है। मनुष्य की कलेक्टिव चेतना में एक व्यग्रता, एक melancholy, एक अविश्वास, रेस्टलेसनेस, एक कंफ्यूजन की स्थिति होती। रोग काल बनकर आता है और करोड़ों लोग काल के गाल में समा जाते हैं।
यह काल ईश्वर ही है जैसा भगवान स्वयं कहते हैं – ‘कालोस्मि भरतर्षभ:’ हे अर्जुन मैं स्वयं काल ही हूँ। ज्योतिष ईश्वर के कालचक्र  की गति को जानने की विद्या है लेकिन यह सिर्फ उसे ही हस्तगत होती है जिसे ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

कठोपनिषद में भगवान यम ने नचिकिता से कहा कि “काल” सबको ग्रसता है, मृत्यु सबको लील जाती है, यह जान कर भी बाल-बुद्धि व्यक्ति को, जो वित्तमोह से मूढ हो गया है, प्रमाद में डूबा हुआ है, परलोक यात्रा का प्रतिबोध नहीं होता। मात्र यह लोक ही है, परलोक होता ही नहीं, ऐसा मानने वाला व्यक्ति ‘मृत्यु’ के वशीभूत होता रहता है।” फिर नचिकता को उपदेश करते हैं –
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्त्यणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्‌ ॥

अवर व्यक्ति (अल्पबुद्धिः ज्ञानहीन) तुम्हें ‘उस काल’ के विषय में बता नहीं सकता; उसके कथन किये जाने पर भी तुम वस्तुतː ‘उसे’ जान नहीं सकते क्योंकि ‘उसका’ बहुविध रूपों में चिन्तन किया जाता है। तथापि अन्य किसी के द्वारा ‘उसके’ विषय मे कथन के बिना तुम ‘उस’ तक पहुँचने का मार्ग भी नहीं पा सकोगे। कारण, ‘वह’ सूक्ष्मता से भी सूक्ष्मतर है तथा तर्क के द्वारा प्राप्य नहीं है।

यमदेव से नचिकेता ने यही सवाल पूछा था कि वो सत्य क्या है जिसको जान लेने के बाद व्यक्ति आपके यम चुंगल से बच जाता है ? यम रूप शनि महाराज कहते हैं कि काल उस कालातीत परमसत्ता के अधीन होकर उनके सृष्टि, स्थिति और विनाश का कार्य सम्पादित करता है। इसलिए उनको जाने बिना काल तत्व को नहीं जाना जा सकता है। काल का अधिष्ठान वह परमात्मा है। भगवान ने वेदों को उत्पन्न किया उससे यज्ञ और कर्म को उत्पन्न किया। उस वेदों की आँख के रूप में ज्योतिष विद्या को प्रकट किया जिससे उनके कालचक्र को समझ कर सभी कर्म सम्पादित किये जाये। उन्होंने सृष्टि की रचना में सबसे पहले दो ध्रुव सूर्य और चन्द्र की रचना की – सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वं कल्पयत ।

काल का अधिष्ठान वह ईश्वर ही सम्पूर्ण काल चक्र को गतिमान किये हुए है और एक सूत्र में पिरोये हुए है। उसका अतिक्रमण कोई नहीं कर सकता है। विशेष काल में ही प्राणान्त होने पर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है, ऐसा भी भगवान ने उपदेश किया है। काल की दो गतियाँ हैं- शुक्ल और कृष्ण जिनमें एक से गया हुए प्राणी का पुनारावर्तन होता है और दूसरे से नहीं होता अर्थात वह पुन: लौट कर नहीं आता –
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽऽवर्तते पुनः।।
काल की इन दो गतियों उत्तरायण और दक्षिणायन के नियंता क्रमश: सूर्य और चन्द्र हैं । सभी नवग्रहों का काल पर शासन नियत है। मनुष्य जीवन के अधिकतम 120 वर्ष में सभी ग्रहों की दशाएं आती है -सूर्य 6 वर्ष, चन्द्रमा-10 वर्ष, मंगल 7 वर्ष, राहु 18 वर्ष, गुरु 16 वर्ष, शुक्र 20 वर्ष, केतु 7 वर्ष, बुध 17 वर्ष, मंगल 7 वर्ष और शनि 19 वर्ष । ये ग्रह मनुष्य के  गर्भाधान के क्षण से ही क्रियाशील हो जाते है और मृत्यु तक काल (आयु) का भोग कराते हैं। ये सभी ग्रह, नक्षत्र, दिन रात, ऋतुएं मनुष्य को कर्मो का भोग कराने के लिए भगवान ने उत्पन्न किये, श्रीमद्भागवतं के अनुसार –
स एष भगवानादिपुरुष एव साक्षान्नारायणो लोकानां स्वस्तय आत्मानं त्रयीमयं कर्मविशुद्धिनिमित्तं कविभिरपि च वेदेन विजिज्ञास्यमानो द्वादशधा विभज्य षट्‌सु वसन्तादिष्वृतुषु यथोपजोषमृतुगुणान् विदधाति ॥
वेद और विद्वान् लोग भी जिसकी गति को जनने के लिए उत्सुक रहते हैं, वे साक्षात् आदि पुरुष भगवान नारायण ही लोकों के कल्याण और कर्म विपाक और शुद्धि के लिए अपने वेदमय विग्रह काल को बारह मासों में विभक्त कर वसंतादि छः ऋतुओं में उनके यथा योग्य गुणों का विधान करते हैं.
आगे भी कहा है -ज्योतिश्चक्र अर्थात कालचक्र के आधार के रूप में भगवान ने ध्रुव को आधारस्तम्भ के रूप में स्थिर किया है जिसके द्वारा सभी ज्योतिर्गण काल के द्वारा रहट की तरह घुमाये जाते है।
स हि सर्वेषां ज्योतिर्गणानां ग्रहनक्षत्रादीनामनिमिषेणाव्यक्तरंहसा भगवता कालेन भ्राम्यमाणानां स्थाणुरिवावष्टम्भ ईश्वरेण विहित: शश्वदवभासते ॥
इसलिए काल का अधिष्ठान स्वरूप भगवान श्रीमन्नारायण की कृपा के बगैर ज्योतिष हस्तगत नहीं हो सकता और काल का ज्ञान सम्भव नहीं है। सभी ग्रह नक्षत्र देवताओं के निवास स्थल हैं, इस ज्योतिश्चक्र के द्वारा भगवान का अधिदैविक स्वरूप ही प्रकट है .. ग्रहर्क्षतारामयमाधिदैविकं.

काल के अधिष्ठान स्वरूप भगवान का ध्यान करें –

भगवान के अधिदैविक स्वरूप का चिन्तन करने से उनके कॉस्मिक स्वरूप की अपरोक्षानुभूति होती है।