
भगवद्गीता महाभारत का हिस्सा है या नहीं इसके लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है. महाभारत के टैक्स्ट में ही इसका सत्य छिपा हुआ है. इसकी पहचान का पहला चरण ये है कि महाभारत का लेखक एक गपोड़ी है और उसका ज्योतिष बेहूदा है. वेदव्यास त्रिकालदर्शी और भागवत पुराण में 24 विष्णु के अवतारों में एक बताये गये हैं. जबकि महाभारत का लेखक त्रिकालदर्शी नहीं है, यह एक ही समय में दो दो शनि देखता है.

शनि एक ही समय में सिंह राशि के पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र में है, फिर यह विशाखा नक्षत्र में भी दिखता है. वक्री होकर भी शनि दो राशि और चार नक्षत्र पार करके वृश्चिक में नहीं जा सकता है. इस गपोड़ी को सामान्य एस्ट्रोनॉमी भी ज्ञात नहीं है. इस लेखक को 12 राशियों का भी ज्ञान नहीं है. यह गपोड़ी वेदव्यास वैसे ही गपोड़ी है जैसे आजकल के कथाकार व्यास पीठ बना कर पर बैठते हैं और खुद को वेदव्यास समझते हैं.
दूसरा स्टेप महाभारत के लेखक का बौधिक विकास है. लेखक दार्शनिक कम गपोड़ी ज्यादा है और किसी प्रसंग को गपोड़कथा बना कर प्रस्तुत करता है जबकि तर्क स्खलित हो जाता है. वेदव्यास का बौधिक स्तर ब्रह्मसूत्र में दिखता है. अगस्त्य ऋषि बहुत बड़े माने जाते हैं लेकिन महाभारत की गपोड़कथा में वह लुटेरे बन कर सामने आते हैं. कहानी में अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा उनके साथ सम्भोग से मना करती है और कहती है वह राजा की लडकी है. वैसा ही पलंग इत्यादि सुख के साधन हों तो वह सम्भोग करेगी. अगस्त्य ऋषि कहते हैं कि मेरे पास धन नहीं, मैं एक तपस्वी हूँ, मैं कहाँ से लाऊंगा. लोपामुद्रा कहती है कि आपके लिए क्या दुर्लभ है, तप से कुछ भी आप मंगा सकते हो. अगस्त्य कहते हैं -मैं तप का दुरूपयोग नहीं करूंगा. मैं राजाओं मांगने जाता हूँ. अगस्त्य जिस राजा के पास जाते हैं, सब बहीखाता देखा देते हैं. उनका बहीखाता शून्य है. राजा कहते हैं कि एक असुर राजा इल्वल बहुत धनवान है. अगस्त्य राजाओं के साथ जाते हैं और उसका धन मिलकर लूट लेते हैं. उसका दिव्य रथ लुटकर आश्रम पहुंचते है जिसपर सोना चांदी लदा हुआ है. राजा भी उसका लूटा हुआ धन लेकर पलायन कर जाते हैं.
महाभारत सात्वत वैष्णवों का प्रोपगेंडा ग्रन्थ है और इसके टैक्स्ट और गपोड़शंख से लगता है कि यह किसी वैष्णव प्रपंची ने ही लिखा होगा, वेदव्यास ने नहीं लिखा है. इसमें भगवदगीता निश्चित रूप से प्रक्षिप्त की गई थी. यह प्रक्षिप्त करने वाले आदि शंकराचार्य और उनके शिष्य थे. भगवद्गीता आदि शंकराचार्य का ही लिखा हुआ ग्रन्थ हैं. यह उन्होंने भाष्य करने से पहले लिखा और उसे प्रक्षिप्त किया तदुपरांत इसका भाष्यों में उद्धरण दिया और इसका स्वयं भाष्य कर इसे प्रख्यापित किया. आदि शंकराचार्य स्वयं एक वैष्णव थे. वेदव्यास के नाम से इसकी प्रामाणिकता बढ़ जाती है और सभी सम्प्रदायों में इसकी स्वीकार्यता हो जाती है. आदि शंकराचार्य से पहले किसी ने भाष्य नहीं लिखा था, यह अपने आप में इसे प्रमाण है कि इसके रचनाकार आदि शंकर ही थे. ऐसा तो सम्भव नहीं कि आदि शंकराचार्य से पहले हिन्दू धर्म में कोई विद्वान् और व्याख्याकार नहीं हुआ? बौधों से लड़ने वाले कुमारिल जैसे दिग्गज ने क्या महाभारत नहीं पढ़ी थी और उसमे ऐसा शानदार ग्रन्थ नहीं देखा होगा? इसका कारण है कि आदि शंकराचार्य से पहले भगवद्गीता का अस्तित्व नहीं थी. कुमारिल भट्ट जैसे विद्वानों को इसका ज्ञान नहीं था, क्या वे वेदों विद्वान् इतने कम पढ़े लिखे थे कि इतनी प्रसिद्ध किताब को उन्होंने नहीं पढ़ा था? या उनसे पूर्व में हुए विद्वानों ने नहीं पढ़ा था !
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह आदि शंकराचार्य और उनके शिष्यों का लिखा हुआ ग्रन्थ है. उन्होंने ही प्रमाण के रूप में प्रस्थानत्रयी बनाया और उसमे मनुस्मृति को रिप्लेस करके इस नई स्मृति को स्थान दिया.