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ऋषि भगवान की तरह ही होते हैं, वे किसी देवता को पीट सकते हैं. ऋषियों के लिए देवता कुछ भी नहीं. पुराणों में अनेक कथाएं हैं जिसमें ऋषियों के श्राप से देवता मर्त्य लोक में पतित हुए या ऋषियों ने उन्हें दण्डित किया है. महर्षि भृगु की कथा विश्व प्रसिद्ध है, उन्होंने श्री हरि की छाती में अपने लात से प्रहार किया था, पिप्पलाद ने शनि को धरती पर गिरा दिया था, दधिची ने विष्णु, इन्द्रादि देवताओं को पराजित करके रूद्र की क्रोधाग्नि से नष्ट होने का श्राप दिया था. दक्ष यज्ञ में सभी देवता इस प्रकार पीटे गये, किसी का दांत टूटा, किसी सिर कटा, किसी की आँख फूटी और विष्णु जान बचाकर भाग गये. वेदों में विष्णु, इंद्र, पूषा, मित्र, भगदेवता प्रमुख देवता हैं. एक ही कोटि के वैदिक देवताओं में पूषण, मित्र, वरुण, इंद्र, अश्विनकुमार के अंतर्गत भग देवता भी आते हैं. द्वादश आदित्यों में भगदेवता सातवें आदित्य हैं. वैदिक आख्यानों के अनुसार भग अंधे हैं. शास्त्रों के अनुसार भगदेवता समृद्धि, भोग और काम के देवता है, काम अँधा होता है. कथा के अनुसार दक्ष यज्ञ में भगवान शिव द्वारा भेजे गये वीरभद्र ने जब भग देवता की आँख फोड़ दी तब देवताओं की प्रार्थना के बाद भगवान शिव ने कहा था कि भग देवता मित्र की आँखों से देखेंगे. शिवपुराण के अनुसार – मित्रनेत्रेण संपश्येद्यज्ञभागं भग: सुर: ! इस यज्ञ में अश्विन कुमार का हाथ तोड़ दिया गया था इसलिए शिव ने उपाय बताया कि आज से अश्विन कुमार पूषा देवता के हाथों से कार्य करेंगे. यज्ञ में जो भी वैष्णव देवता थे उनका अंग भंग परम शैव महर्षि दधिची के श्राप से हो गया था.
ये कथाएं यह बतलाती हैं कि ज्ञानी सबका सम्हार करने में सक्षम है. महर्षि याज्ञवल्क्य के श्राप से पितृमार्गी शाकल्य का भरी सभा में शिर: पात हो गया था. अष्टाध्यायी में लिखा है कि याज्ञवल्क्य ने श्राप दिया था कि “तू पुण्यक्षेत्रातिरिक्त और पुण्य तिथिशून्य काल में मरेगा और तेरी हड्डियाँ भी घर तक नहीं पहुंचेंगी” यही हुआ जब उसकी अस्थियाँ उसके शिष्य अंतिम संस्कार के लिए घर ले जा रहे थे तो उन्हें लुटेरों धन समझ कर छीन लिया तदन्तर उसे रास्ते पर फेंक दिया तो उसको कुत्ते नोच कर खा गये. शाकल्य तीनों वेदों को जानने वाला था लेकिन उसे ज्ञान नहीं था.

भगवद्गीता में कहा भी गया है कि कर्म की गति सिर्फ यह लोक है, इससे आगे इसकी गति नहीं है. कर्म से सिर्फ स्वर्ग और पितृलोक प्राप्त होता है. भगवान शिव ने दक्ष का सिर बकरे का लगवाया और अनुग्रह करते हुए कहा “तुम कर्म और इस संसार को ही अंतिम सत्य मान रहे थे. तुम कर्म से ही संसार पार करना चाहते थे. इसलिए मुझे यज्ञ का विध्वंश करना पड़ा. अब से तुम ज्ञान स्वरूप शिव को जानकर कर्म करो अर्थात ज्ञानपूर्वक कर्म करो”.
केवलं कर्मणां त्वं स्म संसारं तर्त्तुमिच्छसि।
अत एवाभवं रुष्टो यज्ञविध्वंशकारक: ।।

पितृमार्गी संसार में अंधे होकर पाप की वृद्धि करने लगते हैं तब भगवान उनका समूल नाश कर देते हैं. महाभारत में भगवान श्री कृष्ण ने पितृमार्गियों का समूल नाश कर दिया था. धृतराष्ट्र, कृपाचार्य, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य इत्यादि ने इस संसार को ही अंतिम समझ लिया था और इसके लिए उन सभी ने धर्म के सभी मूल्यों की तिलांजलि दे दी थी. सनातन मूल्यों का ह्रास ही धर्म की हानि है. उस समय भगवान ने उनके मोह का नाश उनके समस्त कुल के नाश से किया. यहाँ तक पांडव कुल में भी सब नष्ट हो गये थे, एक परीक्षित को भगवान ने बड़ी प्रार्थना करने पर बचा दिया था. इस तरह देखें तो दक्ष यज्ञ विध्वंश नये युग का आगाज था. इसी दिन से यज्ञ खत्म होने लगे और धीरे धीरे खत्म हो गये. भगवान शिव ने दक्ष यज्ञ से ज्ञान मार्ग का प्रवर्तन किया. एकतरह से यह वेदांत के जन्म की भी कथा है.