
सदामनस्कमर्घ्यम्
भगवान की पूजा में षोडश उपचारों में अर्घ्य भी एक उपचार है, पाद्य प्रदान करने के बाद देवता को अर्घ्य प्रदान करना चाहिए। यहाँ आत्म पूजा के प्रकरण में इस सूत्र में अर्घ्य का वर्णन किया गया है। जब ज्ञान योगी मन को अन्तर्मुखी कर स्वयं को आत्मतत्व में लीन करता है तो वह अमनस्क होता है, उसका मन आत्मतत्व से एकाकार होकर वैसे ही हो जाता है जैसे नमक के ढेले को जल में डालने पर दोनों एकसम हो जाते हैं। अमनस्क योग भी प्रसिद्ध है जिसमे मन के अमनस्क ( विषयों के प्रति उदासीन अवस्था ) होने को ही योग कहा गया है बल्कि सिद्ध स्थिति कही गई है। मन के अमनी भाव में स्थित होने पर जप, प्राणायाम इत्यादि की जरूरत नहीं होती । इस स्थिति में मन के पहुंचने पर ज्ञान योगी नित्योदित अवस्था में निरालम्ब होकर आत्मतत्व में सुख पूर्वक बिहार करता है। इस अमनस्क अवस्था की प्राप्ति के बाद साधक एक पल के लिए भी आत्म तत्व से वियुक्त नहीं रहना चाहता। भक्तों के लिए यही आत्मतत्व इनका ईष्ट होता है, एक बार अपने ईष्ट में जब मन लीन हो जाता है और फिर यदि मन वियुक्त होता है तो उसे वियोग की असह्य वेदना होती है। अमनस्क भाव में जिस आनंद रस का पान उसने किया था अकस्मात उसके न मिलने से मन छटपटाता है, उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वह अपने आत्मभूत ईष्ट को ही पुकारता रहता है, हर जगह उसे ही खोजता रहता है। अपने आत्मस्वरूप कृष्ण से वियुक्त होने पर गोपियों के चित्त की अवस्था का बहुत उदात्त वर्णन वेदव्यास ने श्रीमदभागवतं के दशम स्कन्ध के एकतीसवें अध्याय में किया है।
दृष्टो व: कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मन: ।
नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनै: ॥
हे अश्वत्थ ! हे पाकर ! हे न्यग्रोध ! क्या तुमने कृष्ण को इधर से जाते हुए देखा है ? इस नन्द महाराज के पुत्र ने अपनी प्रेमपूर्ण मुस्कान और चितवन से हमारे चित्त का अपहरण कर लिया है और हमसे दूर चले गये हैं ।
पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पते: ।
नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो ॥
अरी सखी ! इन लताओं से पूछो। ये अपने पति वृक्षों को भुजपाश में बांधकर आलिंगन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ ? इनके शरीर में जो पुलक है, रोमांच है, वह तो हमारे कृष्ण के नखों के स्पर्श से ही है । अहो ! इनका कैसा सौभाग्य है ?
इत्युन्मत्तवचोगोप्य: कृष्णान्वेषणकातरा: ।
लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिका: ॥
इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान श्री कृष्ण को ढूँढते- ढूँढते कातर हो रही थीं। अब और भी गहरे प्रेमोन्माद के आवेश में कृष्णमय होकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं।
ईष्ट के विरह का आवेश में गोपियाँ जब फूट-फूटकर रोने लगीं ठीक उसी समय भगवान कृष्ण ने प्रकट होकर उनके हृदय के संताप को मिटाया और उनके प्रेम से स्वयं को ही धन्य और ऋणी माना।
चित्त की अमनस्क अवस्था की उपमा भ्रमर से दी जा सकती है। यह चित्त की एक योगयुक्त अवस्था है। इस अवस्था में विषयों से वियुक्त होकर चित्त ईश्वर में आसक्त हो गया है। भ्रमर तब तक ही गुनगुनाता है जब तक कि वह पुष्प के पराग का पान नहीं करता. ज्योंहि भ्रमर रस का पान करने लगता है वह शांत हो जाता है, उसके गुनगुनाने का कारोबार निरस्त हो जाता है। ज्ञान और भक्ति में तत्वत: कोई अंतर नहीं है, नासमझ अज्ञानी लोग ही सांख्ययोग अर्थात ज्ञान योग और कर्मयोग अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण द्वारा कर्मों का अनुष्ठान रूप भक्ति योग को अलग-अलग फल वाले कहते हैं। इन दोनों में से एक साधन को अच्छी तरह से करने वाला साधक दोनों के फलरूप परमात्मा को ही प्राप्त करता है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
हर प्रकार से मनुष्य ईश्वर का ही अनुसरण करता है चाहे ज्ञान हो, भक्ति हो या तंत्र मार्ग ही क्यों न हो।