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भारत में तन्त्र स्वयं भगवान शिव द्वारा प्रद्दत ज्ञान प्रवाह है. तन्त्र की दृष्टि अलग है और रहस्य भी परम्परागत रहस्यों से अलग है. सभी तन्त्र के मूल में ज्योतिष वैसे ही स्थित है जैसे वेदों के मूल में ज्योतिष है. तंत्र साधना ज्योतिष आधारित साधना है और इसका बृहद प्रयोग तंत्रों में मिलता है. तंत्रों में मन्त्र से सम्बन्धित न्यास में ज्योतिष के ग्रह न्यास, राशि न्यास और नक्षत्र न्यास भी शामिल हैं.

तंत्र आगम में ग्रहों, राशियों और नक्षत्रों के स्वभाव, चरित्र और उसके फल का विस्तार से वर्णन मिलता है. यह बताया गया है किस प्रकार के मन्त्र किस राशि में जपने चाहिए या किस नक्षत्र में जपने चाहिए. तन्त्र ग्रन्थ देवताओं के अनुसार साधना का विधान करते हैं. यह तन्त्र द्वारा लोक में प्रसिद्ध हुआ कि स्त्री देवता जैसे दुर्गा, काली, लक्ष्मी आदि के साधना का प्रारम्भ द्विस्वभाव लग्न में करना चाहिए, उनमे भी कन्या राशि को प्राथमिकता दी गई है. इस लेख में संक्षिप्त में तन्त्र के ज्योतिष की झलक दिखाया जा रहा है –

आठवी शताब्दी के इस यामल तन्त्र में नक्षत्रों के देवताओं वर्णन वैदिक ज्योतिष से एकदम अलग है. यहाँ कहा गया है कि अश्लेषा नक्षत्र का अधिपति शुक्र है जो विपदा और दुःख प्रदान करता है. यह दुःख के दवानल से परिपूर्ण है. मघा नक्षत्र का अधिपति बृहस्पति है जो ब्राह्मण है. यह धन सम्पत्ति प्रदान करते हैं. पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र के स्वामी बुध है जो नील वर्ण के हैं और उत्तर फाल्गुनी के स्वामी मंगल हैं जो अनेक प्रकार के सुखों से पूर्ण कर देते हैं. हस्त नक्षत्र के स्वामी चन्दमा हैं और चित्र नक्षत्र के स्वामी बुध हैं.

यह वर्णन पारम्परिक ज्योतिष से अलग है. अश्लेषा का स्वामी बुध है, मघा का स्वामी केतु है, पूर्वफाल्गुनी का शुक्र, उत्तर फाल्गुनी का सूर्य, हस्त का चन्द्रमा और चित्रा नक्षत्र का स्वामी मंगल है. तन्त्र ग्रन्थ में राहु का स्वरूप भी वैदिक ज्योतिष से अलग है और उसे सदाशिव कहा गया है.

पंचतत्व विधान वेत्ता महादेव स्वयं शुची रेचन नाम से राहु रूप में स्थित हैं, इसलिए कालरूप महादेव का यह मुख विकट और भयंकर है. दूसरी तरफ राहु को सुख का विनाश करने वाला भी कहा गया है . वैदिक ज्योतिष से यह यह एकदम अलग वर्णन है जहाँ राहु एक राक्षस के रूप में वर्णित है. ऋग्वेद में राहु को सिंहिका राक्षसी का पुत्र बताया गया है.

राहु का अभिजित काल से सम्बन्ध बताया गया है और मध्याह्न संध्या काल पर उसका अधिपत्य है. गौरतलब है कि राहु काल अक्सर इस काल में भी पड़ता है . यह श्लोक में स्पष्ट बताया गया है कि शनि-राहु एकसाथ रहने पर संध्या काल के समान हैं. शनि को धारणा नाम का प्रभु कहा गया है जो कुम्भक के समान है. यह शनि के चरित्र को ही स्पष्ट करता है. इस प्रकार तंत्रों में ज्योतिष का स्वरूप तन्त्र की तरह ही रहस्यमय है. इस यामल तन्त्र का ज्योतिष होराशास्त्र के लिखे जाने से बहुत पूर्व का है इसलिए इसका चरित्र तन्त्र की तरह ही रहस्य से भरा हुआ है. शनि के लिए प्रयुक्त “धारणाख्य प्रभु” शब्द उसके मौलिक चरित्र को स्पष्ट करता है. शनि धैर्य और साधना का ग्रह है. शनि के बिना ये दोनों गुण मनुष्य में नहीं आते.