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विदेशी लेखक और शोधकर्ताओं की आदत ईसाईयों की तरह ही होती है, ये अन्य संस्कृतियों से घृणा करते हैं और रिसर्च में यह घृणा दृष्टि प्रभावी रहती है. वास्तव में ये ईसाई शोधकर्ता मिशनरियों के ग्रांट पर निर्भर रहते हैं इसलिए वे स्वतंत्र शोध नहीं कर सकते, उन्हें मालिक को संतुष्ट करना पड़ता है और मालिक मिशनरी है. ईसाई पोप आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं होता, यह एक मिशनरी होता है और मूलभूत रूप से भौतिकवादी होता है. यह साम्राज्यवाद के अनुसार अपने सिद्धांत बदलता रहता है. आज LGBT कम्युनिटी की संख्या ईसाई देशों में ज्यादा हो गई तो ये उसके समर्थक हो गये और कल LGBT बाईबिल भी लिख डालेंगे. ईसाई शोधकर्ता अपनी ग्रीक संस्कृति की महानता बताते हैं क्योंकि यही उनका पूरब है. यह प्रमुख कारण कि जब सबसे प्राचीन वैदिक संस्कृति की बात आती है तो ये उसे “हाल में ही पैदा हुई ..ज्यादा पुरानी नहीं है” सिद्ध करने में लगे रहते हैं. भारत की संस्कृति अभी हाल तक हडप्पा काल तक सिमित थी जबकि ये अनेक पश्चिमी संस्कृतियों के 9000 BC पुराने अवशेष निकाल लाये अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए. भारत में इस दिशा में काम ही नहीं हुआ. वेदों के काल निर्धारण में ये 1700 BCE से पीछे नहीं जाते.  पौराणिक ग्रन्थों के कालक्रम निर्धारण में भी ये प्रारम्भिक पुराणों को 400 इसवी से प्राचीन नहीं बताते. चौथी-पांचवीं शताब्दी में लिखे सूर्यसिद्धांत को भी सत्य मान लें तो प्रारम्भिक पुराणों मत्यस्य पुराण और विष्णु धर्मोत्तर का समय BC में चला जायेगा. रामायण का काल 8th से 4th centuries BCE बताया जाता है और पुराण ग्रन्थ यह कहते हैं कि पुराण, वाल्मीकि रामायण के मॉडल पर ही लिखा गया है. आर्यभट्टिय में उस समय की प्रचलित वैदिक काल गणना ही प्रयुक्त हुई है. यह काल गणना दुनिया की किसी संस्कृति में नहीं  पाई जाती. आर्यभट्ट अपनी अंतर्वस्तु में मौलिक हैं लेकिन विदेशी अपनी ग्रीक श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ग्रीक खगोलशास्त्र पर आधारित बताते हैं. चिन्तन में ग्रीक लोग भारत से बहुत पीछे थे और गणित ? गणित तो इन्हें कहाँ आती थी. जब भारत में गौतम बुद्ध अपना उपदेश दे रहे थे तब ग्रीक दार्शनिक सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में हवा-पानी पर बहस कर रहे थे. यह 500 BC में ग्रीक चिंतकों का हाल था. गणित में दुनिया की कोई संस्कृति भारत से आगे नहीं थी. आर्यभट्ट जो काल निर्धारण करते हैं वह विशुद्ध वैदिक है और हिन्दू ऋषियों की इस काल गणना को ही सत्य मानता है –

आर्यभट्टिय का यह श्लोक काल का गणित वैदिक गणित के आधार पर ही करता है. यह काल गणना सभी पुराणों में पाया जाता है. यह कोई चौथी या पांचवीं शदी का अविष्कार नहीं है. वाल्मीकि रामायण में भी यही युग की अवधारणा है. इससे यह तो सिद्ध होता है कि प्रारम्भिक पुराण आर्यभट्टिय से पूर्व प्रचलन में होंगे. सातवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य अपने भाष्यों में दो पुराणों का मत्स्य पुराण और विष्णु पुराण तो जिक्र करते ही हैं. पुराणों की रचना निःसंदेह रामायण के बाद ही प्रारम्भ हुई थी. महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण सम्भवत: BC का हो सकता है. भागवत महापुराण का समय उत्तर वेदांत काल का है जो 8वीं-9वीं शताब्दी के लगभग का ही होगा. इसका निश्चित प्रमाण इसके बाद तेजी से विकसित हुए विष्णु-मन्दिर हैं. यहाँ कुछ शोधकर्ताओं का समय निर्धारण दिया जा रहा है –

भागवत पुराण आदि शंकराचार्य के भगवद्गीता भाष्य और सनतसुजतीय भाष्य के उपरांत ही लिखा गया होगा ऐसा मेरा मत है. गौडीय सम्प्रदाय के भक्ति विनोद ठाकुर भागवत पुराण को 9वीं शताब्दी का बताते हैं जो कमोवेश मेरे मत के अनुसार करीब ही लगता है. आदि शंकराचार्य के निर्वाण के 100 वर्ष के लगभग यह ग्रन्थ अस्तित्व में आ चूका था. प्रारम्भिक पुराण आर्यभट्ट के बहुत पहले के हैं इसमें कोई संदेह नहीं है. आर्यभट्टिय का गणित जिस वैदिक गणित पर आधारित है वह थोडा क्लिष्ट है. आर्यभट्ट ने ग्रहों के भचक्र में परिभ्रमण का जो समय 500 AD में निर्धारित किया था वह 1500 साल बाद भी लगभग वही है. जो गौड़ अंतर है वो बहुत गौड़ अंतर है.

जहाँ तक ज्योतिष की प्राचीनता का सन्दर्भ है तो वैदिक काल में इसका पूर्ण ज्ञान था –
सूर्य सम्वत्सर चक्र के मध्य बृहती छंद पर प्रतिष्ठित है अर्थात विषुवत वृत्त पर स्थित है ‘सूर्यो बृहती मध्यूढस्पति’. इसके २४-२४ अंश पर दक्षिण गोल और उत्तर गोल हैं. इस ४८ अंश में ही सम्वत्सराग्नि प्रतिष्ठित है। इस क्रांति वृत्त पर पृथ्वी वर्तुलाकार घुमती है, (सर्वत: त्सरति) यह वैदिक काल से ज्ञात है। सम्वत्सर नाम भी इसी कारण पड़ा . यह व्युत्पत्ति शतपथ में उपलब्ध होती है –
स ऐक्षत प्रजापतिः। सर्वं वा अत्सारिषं य इमा देवता असृक्षीति स संवत्सरोऽभवत्संवत्सरो ह वै नामैतद्यत्संवत्सर इति स यो हैवमेतत्संवत्सरस्य संवत्सरत्वं वेद यो हैनं पाप्मा मायया त्सरति न हैनं सोऽभिभवत्यथ यमभिचरत्यभि हैवैनं भवति य एवमेतत्संवत्सरस्य संवत्सरत्वं वेद – ११.१.६.११

वैदिक गणित प्राण विद्या पर आधारित है इसलिए आर्यभट्ट का गणित इतना सटीक है. आधुनिक Astronomy 1500 वर्ष बाद भी ग्रहों के भचक्र में परिभमण का समय लगभग उतना बताती है. जो अंतर है वो गौड़ है और जरूरी नहीं की विज्ञान का गणित शतप्रतिशत सही है, उनके सिद्धांत परिवर्तनशील है और ये पूर्व के सिद्धांत का नेगेशन करते रहते हैं. भारतीय दर्शन में काल गणित वही है, सदैव वही रहेगा, क्योंकि यह सूर्य से प्राप्त है. वैदिक ज्योतिष सबसे प्राचीन है और कमोवेश लुप्त हो गये वैदिक यज्ञ विज्ञान से गहरे जुड़ी रही है. ईसाई यहाँ तक पहुंचने में अभी हजारों साल और बिताएंगे तब पहुंचेंगे.