अंत:करण का आयतन संक्षिप्त है
आत्मीयता के योग्य
मैं सचमुच नहीं!
पर, क्या करूँ,
यह छाँह मेरी सर्वगामी है!
हवाओं में अकेली साँवली बेचैन उड़ती है
कि श्यामल-अंचला के हाथ में
तब लाल कोमल फूल होता है
चमकता है अँधेरे में
प्रदीपित द्वंद्व चेतस् एक
सत्-चित्-वेदना का फूल
उसको ले
न जाने कहाँ किन-किन साँकलों को
खटखटाती वह,
नहीं इनकारवाले द्वार खुलते, किंतु
उन सोते हुओं के गूढ़ सपनों में
परस्पर-विरोधों का उर-विदारक शोर होता है!
विचित्र प्रतीक गुँथ जाते,
(अनिवार्य-सा भवितव्य) नीलाकाश
नीचे-और-नीचे उतरता आता
उस नीलाभ छत से शीश टकराता
कि सिर से ख़ून,
चेहरा रक्त धाराओं-भरा,
भीषण
उजाड़ प्रकाश सपने में
कि वे जाग पड़ते हैं
तुरत ही, गहन चिंताक्रांत होकर, सोचने लगते
कि बेबीलौन सचमुच नष्ट होगा क्या?
प्रतिष्ठित राज्य संस्कृति के प्रभावी दृश्य
सुंदर सभ्यता के तुंग स्वर्ण-कलश
सब आदर्श
उनके भाष्यकर्ता ज्ञानवान् महर्षि
ज्योतिर्विद, गणितशास्त्री, विचारक, कवि,
सभी वे याद आते हैं।
प्रतापी सूर्य हैं वे सब प्रखर जाज्वल्य
पर, यह क्या अँधेरे स्याह धब्बे सूर्य के भीतर
बहुत विकराल
धब्बों के अँधेरे विवर तल में-से
उभरकर उमड़कर दल बाँध उड़ते आ रहे हैं गिद्ध
पृथ्वी पर झपटते हैं
निकालेंगे नुकीली चोंच से आँखें,
कि खाएँगे हमारी दृष्टियाँ ही वे!
मन में ग्लानि,
गहन विरक्ति, मितली के बुरे चक्कर
भयानक क्षोभ
पीली धूल के बेदम बगूले, और
गंदे काग़ज़ों का मुन्सिपल कचरा!!
कि मेरी छाँह, उनको पार कर, भूरे पहाड़ों पर
अचानक खड़ी स्तब्ध
उसके गहन चिंतनशील नेत्रों में
विदारक क्षोभमय संतप्त जीवन-दृश्य
मैदानी प्रसारों पर क्रमागत तिर रहे-से हैं।
जहाँ भी डालती वह दृष्टि,
संवेदन-रुधिर-रेखा-रँगी तस्वीर तिर आती—
गगन में, भूमि पर, सर्वज्ञ दिखते हैं
तड़प मरते हुए प्रतिबिंब
जग उठते हुए द्युति-बिंब
दोनों की परस्पर-गुंथन
या उलझाव लहरीला
व उस उलझाव में गहरे,
बदलते जगत् का चेहरा!!
मेरी छाँह सागर-तरंगों पर भागती जाती,
दिशाओं पार हल्के पाँव।
नाना देश-दृश्यों में
अजाने प्रियतरों का मौन चरण-स्पर्श,
वक्ष-स्पर्श करती मुग्ध
घर में घूमती उनके,
लगाती लैंप, उनकी लौ बड़ी करती।
व अपने प्रियतरों के उजलते मुख को
मधुर एकांत में पाकर,
किन्हीं संवेदनात्मक ज्ञान-अनुभव के
स्वयं के फूल ताज़े पारिजात-प्रदान करती है,
अचानक मुग्ध आलिंगन,
मनोहर बात, चर्चा, वाद और विवाद
उनका अनुभवात्मक ज्ञान-संवेदन
समूची चेतना की आग
पीती है।
मनोहर दृश्य प्रस्तुत यों—
गहन आत्मीय सघनच्छाय
भव्याशय अँधेरे वृक्ष के नीचे
सुगंधित अकेलेपन में,
खड़ी हैं नीलतन दो चंद्र-रेखाएँ
स्वयं की चेतनाओं को मिलाती हैं
उनसे भभककर सहसा निकलती आग,
या निष्कर्ष
जिनको देखकर अनुभूत कर दोनों चमत्कृत हैं
अँधेरे औ’ उजाले के भयानक द्वंद्व
की सारी व्यथा जीकर
गुँथन-उलझाव के नक्षे बनाने,
भयंकर बात मुँह से निकल आती है
भयंकर बात स्वयं प्रसूत होती है।
तिमिर में समय झरता है,
व उसके सिर रहे एक-एक कण से
चिनगियों का दल निकलता है।
अँधेरे वृक्ष में से गहन आभ्यंतर
सुगंधे भभक उठती हैं
कि तन-मन में निराली फैलती ऊष्मा
व उन पर चंद्र की लपटें मनोहरी फैल जाती हैं।
कि मेरी छाँह
अपनी बाँह फैलाती
व अपने प्रियतरों के ऊष्मश्वस् व्यक्तित्व
की दुर्दांत
उन्मद बिजलियों में वह
अनेकों बिजलियों से खेल जाती है,
व उनके नेत्रों को दीखते परिदृश्य में
वह मुग्ध होकर फैल जाती है,
जगत् संदर्भ, अपने स्वयं के सर्वत्र फैलाती
अपने प्रियतरों के स्वप्न, उनके विचारों की वेदना जीकर,
व्यथित अंगार बनती है,
हिलगकर, सौ लगावों से भरी,
मृदु झाइयों की थरथरी
वह और अगले स्वप्न का विस्तार बनती है।
वह तो भटकती रहती है,
उतरती है खदानों के अँधेरे में
व ज़्यादा स्याह होती है
हृदय में वह किसी के सुलगती रहती
उलझकर, मुक्तिकामी श्याम गहरी भीड़ में चलती
उतरकर, आत्मा के स्याह घेरे में
अचानक दृप्त हस्तक्षेप करती है
सिखाती सीखती रहती,
परखती, बहस करती और ढोती बोझ
मेहनत से,
ज़मीनें साफ़ करती है,
दिवालों की दरारें परती-भरती,
व सीती फटे कपड़े, दिल रफ़ू करती,
किन्हीं प्राणांचलों पर वह कसीदा काढ़ती रहती
स्वयं की आत्मा की फूल-पत्ती के नमूने का!!
अजाने रास्तों पर रोज़
मेरी छाँह यूँ ही भटकती रहती
किसी श्यामल उदासी के कपोलों पर अटकती है
अँधेरे में, उजाले में,
कुहा के नील कुहरे और पाले में,
व खड्डों-खाइयों में घाटियों पर या पहाड़ों के कगारों पर
किसी को बाँह में भर, चूमकर, लिपटा
हृदय में विश्वृ-चेतस् अग्नि देती है
कि जिससे जाग उठती है
समूची आत्म-संविद् उष्मश्वस् गहराइयाँ,
गहराइयों से आग उठती है!!
मैं देखता क्या हूँ कि—
पृथ्वी के प्रसारों पर
जहाँ भी स्नेह या संगर,
वहाँ पर एक मेरी छटपटाहट है,
वहाँ है ज़ोर गहरा एक मेरा भी,
सतत मेरी उपस्थिति, नित्य-सन्निधि है।
एक मेरा भी वहाँ पर प्राण-प्रतिनिधि है
अनुज, अग्रज, मित्र
कोई आत्म-छाया-चित्र!!
धरती के विकासी द्वंद्व-क्रम में एक मेरा छटपटाया वक्ष,
स्नेहाश्लेष या संगर कहीं भी हो
कि धरती के विकासी द्वंद्व-क्रम में एक मेरा पक्ष,
मेरा पक्ष, निःसन्देह!!
यह जनपथ,
यहाँ से गुज़रते हैं फूल चेहरों के
लिए आलोक आँखों में।
स्वयं की दूरियाँ, सब फ़ासले लेकर
गुज़रते रातें अँधेरी,
गुज़रती हैं ढिबरियाँ, टिमटिम
सुबह गोरी लिए जाती ख़ुद अपनी
आईने-सी साफ़ दुपहरी,
हँसी, किलकारियाँ
रंगीन मस्त किनारियाँ
रंगीन मस्त किनारियाँ
वे झाइयाँ आत्मीय,
वे परछाइयाँ काली बहुत उद्विग्न,
श्यामल खाइयाँ गंभीर।
मुझको तो समूचा दृश्य धरती की सतह से उठ,
अनावृत, अंतरिक्षाकाश-स्थित दिखता,
नवल आकाश के प्रत्यक्ष मार्गों सेतुओं
पर चल रहा दिखता
व उस आकाश में से बरसते मुझ पर
सुगंधित रंग-निर्झर और
छाती भीग जाती है, व आँखों में
उसी की रंग-लौ कोमल चमकती-सी
कि इतने में
भयानक बात होती है
हृदय में घोर दुर्घटना
अचानक एक काला स्याह चेहरा प्रकट होता है
विकट हँसता हुआ।
अध्यक्ष वह
मेरी अँधेरी खाइयों में
कार्यरत कमज़ोरियों के छल-भरे षड्यंत्र का
केंद्रीय संचालक
किसी अज्ञात गोपन कक्ष में
मुझको अजंता की गुफाओं में हमेशा क़ैद रखता है
क्या इसलिए ही कर्म तक मैं लड़खड़ाता पहुँच पाता हूँ?
सामना करने
निपीड़क आत्मचिंता से
अकेले में गया मन, और
वह एकेक कमरा खोल भीतर घुस रहा हर बार
लगता है कि ये कमरे नहीं हैं ठीक
कमरे हैं नहीं ये ठीक,
इन सुनसान भीतों पर
लगे जो आईने उनमें
स्वयं का मुख
जगत् के बिंब
दिखते ही नहीं…
जो दीखता है वह
विकृत प्रतिबिंब है उद्भ्रांत
ऐसा क्यों?
उन्हें क्योंकर न साफ़ किया गया?
कमरे न क्यों खोले गए?
आश्चर्य है!
ये आईने किस काम के
जिनमें अँधेरा डूबता!!
सबकी पुनर्रचना न क्योंकर की गई?
इतने में कहीं से आ रहा है पास
कोई जादुई संगीत-स्वर-आलाप
आता पास और प्रकाश बनता-सा
कि स्वर ने रश्मियों में हो रहे परिणत
व उनसे किरण-वाक्यावलि
सहस्रों पीढ़ियों ने विश्व का
रमणीयतम जो स्वप्न देखा था
वही,
हाँ, वही
बिल्कुल, सामने, प्रत्यक्ष है!!
मैं देखता क्या हूँ,
अँधेरे आईनों में सिर उठाती है
प्रतेजस-आनना
प्रतिभामयी मुख-लालिमा
तेजस्विनी लावण्य भी
प्रत्यक्ष,
बिल्कुल सामने!!
(शायद, शमा कोई अचानक मुस्कुराई थी)
कई फ़ानूस, भीतर, रंग-बिरंगे झलमला उठते
गहन संवेदनाओं के…
आश्चर्य,
क्योंकि दूसरे ही क्षण
अचानक एक ठंडा स्पर्श कंधे पर
हृदय यह थरथरा उठता!!
भयानक काला लबादा ओढ़े है,
बराबर, सामने, प्रत्यक्ष कोई
स्याह परदे से ढँका चेहरा
सुरीली किंतु है आवाज़
व यद्यपि चीख़ते-से शब्द—
मुझसे भागते क्यों हो,
सुकोमल काल्पनिक तल पर,
नहीं है द्वंद्व का उत्तर
तुम्हारी स्वप्न-वीथी कर सकेगी क्या।
बिना संहार के, सर्जन असंभव है,
समन्वय झूठ है,
सब सूर्य फूटेंगे
व उनके केंद्र टूटेंगे
उड़ेंगे-खंड
बिखरेंगे गहन ब्रह्मांड में सर्वत्र
उनके नाश में तुम योग दो!!
आँखें देखती रहतीं,
हृदय यह स्तब्ध है,
कौन है जो सामने है, क्षुब्ध है!!
सहसा किसी उद्वेग से
मैं झपटता,
उस घोर आकृति पर भयानक टूट पड़ता हूँ!
व उसका आवरण ऊपर उठाकर फेंक देता हूँ,
कि मैं आतंक-हत
जी धक्
व जड़, निर्वाक्!!
वह तो है, वही है, हाँ वही बिल्कुल,
प्रतेजस-आनना
लावण्य-श्री मितस्मिता
जिसने अँधेरे आईने में सिर उठाया था
व हल्के मुस्कुराया था
व मेरा जी हिलाया था!!
सहस्रों पीढ़ियों ने विश्व का
रमणीयतम
जो स्वप्न देखा था
वही बिल्कुल वही।
स्वप्न के आवेश में यह जो
सुकोमल चाँदनी की मंद नीली श्री
क्षितिज पर देख,
फ़सलों के महकते सुनहले फैलाव
में ही चला जाता हूँ
व आँखों में चमकती चाँद की लपटें
हृदय में से
निकलती आम्र-तरु-मधु-मंजरी की गंध।
इतने में सुनहला एक गोरा झौंर
सहसा तोड़ लेता हूँ
अचानक देखता क्या हूँ
हर एक बोली में सुकोमल फूल में
तेजस्-स्मित धरती और मानव के
प्रभामय मुख समन्वय से
अरे किसका अरे किसका
प्रिय जनों का!! सहचरों का वह
कि उसको देख
गोरा झौंर
वापल लगा देता, जमा देता डाल पर सुस्थित
व वे मुख मुस्कुराते हैं
कि जादू है
व मैं इस जादुई षड्यंत्र में फँसता गया।
पर हाय!
मुझको तोड़ने की बुरी आदत है
कि क्या उत्पीड़कों के वर्ग से होगी न मेरी मुक्ति!!
इतने में वही रमणीयतम
मृदु मूर्ति
धीमे मुस्कुराती है
व मुझको, और गहरे और गहरे,
जान जाती है
कि इन्हें सब जगह यों फैल जाती हैं
कि मैं लज्जित
भयानक रूप से
विद्रूप मैं सचमुच!!
कि इतने में
अचानक कान में फिर से
नभोमय भूमिमय लहरा रहा-सा
गंधमय संगीत
मानो गा रहा कोई पुरुष
आकाश के नीचे,
खुले बेछोर क्षिप्रा कूल पर उन्मुक्त
लेकिन विरोधात्मक चेतना मेरी
उसी क्षण सुन रही है
श्याम संध्या काल मंदिर आरती आलाप वेला में
भयानक श्वानदल का ऊर्ध्व क्रंदन
वह उदासी की ऊँचाई पर चढ़ा लहरा रहा रोना
सुन रहा हूँ आज दोनों को
कि है आश्चर्य!!
यह भी ख़ूब
जिस सौंदर्य को मैं खोजता फिरता रहा दिन-रात
वह काला लबादा ओढ़
पीछे पड़ गया था रात-दिन मेरे।
कि उद्घाटित हुआ वह आज
कि अब सब प्रश्न जीवन के
मुझे लगते
कि मानो रक्त-तारा चमचमाता हो
कि मंगल-लोक
हमको बुलाता हो
साहसिक यात्रा-पथों पर और
मेरा हृदय दृढ़ होकर धड़कता है
कि मैं तो एक आयुध
मात्र साधन
प्रेम का वाहन
तुम्हारे द्वार आया हुआ मैं अस्त्र-सज्जित रथ
मेरे चक्र दोनों अग्र गति के लिए व्याकुल हैं
व मेरी प्राण-आसंदी तुम्हारी प्रतीक्षा में है
यहाँ बैठो, विराजो,
आत्मा के मृदुल आसन पर
हृदय के, बुद्धि के ये अश्व तुमको ले उड़ेंगे और
शैल-शिखरों की चढ़ानों पर बसी ठंडी हवाओं में
उसके पार
गुरुगंभीर मेघों की चमकती लहर-पीठों पर
व उसके भी परे, आगे व ऊँचे,
स्वर्ण उल्का-क्षेत्रों में रथ
तुम्हें ले जाएगा!!
नक्षत्र-तारक-ज्योति-लोकों में घुमा ले आएगा सर्वत्र।
रथ के यंत्र सब मज़बूत हैं।
उन प्रश्न-लोकों में यहाँ की बोलियाँ
तुमको बुलाती हैं
कि उनको ध्यान से सुन लो।
-गजानन माधव मुक्तिबोध

