Spread the love

यह जो पुरुष या आत्मा है उसका परिमाण या साइज अंगुष्ठ मात्र बताया गया है. “अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः।” यह हर मनुष्य के अंगूठे के अनुसार है. हृदय में यह आत्मा रहती है. हृदय का साइज अंगूठे के बराबर होता है इसलिए इसे अंगुष्ठ मात्र कहा गया है. जब कोई व्यक्ति मरता है तो उसकी आत्मा अगुठे के बराबर लिंग शरीर के साथ 13 दिन घर के चक्कर काटती है क्योंकि घर से उसका मोह था. उसकी जब 13वीं हो जाती है तो वह मुक्त हो जाता है अर्थात पितृ लोक को चला जाता है. यदि गूगल सर्च करो तो औसत हृदय की लम्बाई 12 सेंटीमीटर बतायेगा. हलांकि औसत अंगूठा 8 सेंटीमीटर तक लम्बा होता है. इस आधार पर तो यह गलत हो जायेगा कि हर मनुष्य के अंगूठे के बराबर उसकी आत्मा होती है क्योकि हृदय अंगूठे के बराबर होता है. औसत हृदय की लम्बाई 12 सेंटीमीटर होती है जबकि अंगठे की लम्बाई 8 सेंटीमीटर से ज्यादा नहीं होती. ब्रह्म सूत्र भाष्य में यह लिखा गया है-

दि यह गलत हो जायेगा तो सारा प्रेत विद्या या पितर खतरे में पढ़ सकते हैं. तो शास्त्र को कैसे पढ़े? लिटरल न पढ़े. हो सकता है कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा हृदय गुहा में सूक्ष्म रूप में रहता है. लेकिन जो सम्प्रदाय के आचार्य हुए उन्होंने इसका लिटरल अर्थ ही किया है जो मेडिकल साइंस का हृदय का परिमाण 12 सेंटीमीटर से मैच नहीं करता. औसत अंगूठा 8 सेंटीमीटर से ज्यादा नहीं होता. मैं 6 फिट हूँ. मेरे अंगूठे की लम्बाई 7.5 सेंटीमीटर है.

प्रेत विद्या या पितर विद्या खतरे में है क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर खतरे में हैं और शास्त्र भी खतरे में है. पितरो का अस्तित्व माना जाता है और इसलिए दिवंगत गुरुओं की पूजा की जाती है. प्राचीन गुरु जिनमे अनेक ऋषि, सिद्ध योगी हैं जिनका श्राद्ध में तर्पण आदि किया जाता है कि ये इसी भारत के आकाश में अदृश्य रहते हैं या किसी ऋषि लोक में रहते हैं और महान ज्ञान-शक्ति-विभूति वाले हैं. ये हिन्दुओं की कोई मदद गुलामी के समय में नहीं किये जबकि श्राद्ध में पिंड खाते थे, पानी पीते थे. महाभारत और पुराण में पितर हाथ से पिंडदान लेते हुए भी बताये गये हैं. भीष्म महाभारत में श्राद्ध करता है तो उसके पितर शांतनु हाथ बढ़ा कर पिंड लेते हैं. ये तथाकथित पितर हिन्दुओं की हजारों साल की गुलामी में जब हिन्दू राजा भी मन्दिर लूटते थे, धर्म खतरे में था, प्रकट नहीं हुए और कोई मदद नहीं की थी. मठाधीश बाबाओं के पितर गुरु भी उनकी कोई मदद नहीं कर पाए. ऐसा कई कारणों से लगता है कि ये तथाकथित पितर एक फेक कंसेप्ट है. इसका कोई अस्तित्व नहीं है अन्यथा यदि योगविभूति वाले ये पितर अवश्य संकटों में देख कर उपस्थित होते.

इस बात को पहले भी मैं लिख चूका हूँ कि उत्तर वेदांत इसको ख़ारिज करता है. भगवद्गीता में भी इसे ख़ारिज किया गया है. अर्जुन के प्रश्न कि पितरो का क्या होगा ? पिंडदान आदि क्रियाओं का क्या होगा ? इसका उत्तर देते समय कृष्ण कहते हैं-मूर्खों वाली बात मत करो, आर्य जन इसकी चिंता नहीं करते. पितर प्रेत पूजा आर्यों द्वारा सेवित नहीं है. आगे बढो, मैं तुम्हे मुक्ति का सही मार्ग बताता हूँ. भगवद्गीता में “जायते म्रियते वा”द्वारा भी यही कहा गया है कि शोक कोई कारण नहीं है. तब पिंडदान का भी कोई कारण नहीं है. जब कोई मरेगा तब न पिंडदान और श्राद्ध करोगे ? जब मृत्यु नहीं होती, यह आत्मा अविनाशी है यह भगवान कहता है तो किसका श्राद्ध करोगे ? देह का श्राद्ध करोगे ? ऐसे में सन्यासी जो पहले पिंडदान करते हैं अत्यंत मूर्ख ही है. ये मूर्ख ही धार्मिक नेता बने हुए हैं. श्राद्ध क्रिया तो आत्मा को मारने वाला मारण कर्म हो गया. गीता में भगवान कहता है कि आत्मा अविनाशी है, इसे अग्नि जला नहीं सकती, शस्त्र काट नहीं सकता. यह अजर, अमर है. पुजारी श्राद्ध करके कहता-हे प्रेत तू मर गया है. तेरे खाने का यहाँ चावल का पिंड और जल दे रहे, तू हमे रूपये देना या बच्चे नहीं हो रहे बच्चे देना.

एक चुटकिला –
पुजारी – हे अविनाशी जो तू मर गया है, मेरे द्वारा दिया गया अन्न खा और हमारे बच्चे नहीं हो रहे, हमे बच्चे दे ..
प्रेत -अरे मूर्ख, मैं अपने दुष्कर्मों के कारण यहाँ पीपल का पेड़ बन गया हूँ. . तू मुझसे बच्चे मांग रहा!