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शरीर और मन के अन्योन्याश्रित संबंध में एक के स्वस्थ रहने पर दूसरा भी स्वस्थ रहता है. एक के बीमार पड़ने पर दूसरा भी रुग्णता रहता का शिकार हो जाता है. इन दोनों में मन की प्रधानता है. मन की इच्छा या आज्ञा के अनुरूप शरीर विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलाप पूरे करता रहता है. यहाँ तक कि अनायास ही अनवरत रूप से होते रहने वाली जीवन-चर्या को वहन करने वाली अनेकानेक गतिविधियों का सूत्र-संचालन भी अचेतन मन ही करता है. रक्त-संचार, शयन-जागरण, निमेष-उन्मेष, चयापचय जैसी अनेक क्रिया-प्रक्रियाएँ शरीर के अंतर्गत होती रहती हैं. यह अनायास ही नहीं होता, उनका सूत्र-संचालन अचेतन मन अपनी रहस्यमयी सामर्थ्य के आधार पर करता रहता है. मनःशक्ति के समाप्त हो जाने पर मनुष्य मर जाता है. उसमें शिथिलता आ जाए, तो फिर मूर्छित या निष्क्रिय स्थिति में चला जाना पड़ता है. मन को ही चेतना का केन्द्र माना गया है. शरीर तो उसका पंच भौतिक आवरण मात्र है.

मन का स्वस्थ एवं सही रहना, शारीरिक स्वस्थता की आवश्यक शर्त है. यदि वह विकृत, उन्मत्त, भ्रम-ग्रस्त अथवा अस्वस्थ हो तो, फिर शरीरगत क्रिया-कलाप भी ठीक तरह नहीं होंगे. विक्षिप्तों की भौंड़ी हरकतें देखिये, क्या उन्हें सभ्यता का बोध रहता है ? शरीर हरकतें तो करता है, पर वे सभी ऐसी होती हैं जो हास्यास्पद होती हैं और उनसे कोई कोई लाभदायक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. विभिन्न प्रकार के नशे में बन पड़ने वाली चित्र-विचित्र घटनाओं को देखकर इसका परिचय भली-भाँति पाया जाता है. फासिस्ट विचारधाराओं की विक्षिप्त बातें, उनकी घृणा और विद्वेष आधारित राजनीति भी मॉस स्तर पर मानसिक विकृतियों को जन्म देती है. इस्लाम की जेहादी विचारधरा ने समस्त मुस्लिम जगत को विक्षिप्त कर डाला है और बड़ी संख्या में आतंकवादी बना डाला है. घृणा और क्रोध भी एक नशा को जन्म देते हैं और लोगों को विक्षिप्त बनाते हैं. भगवद्गीता में कहा गया है –
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।

विक्षिप्त या अर्ध विक्षिप्त स्थिति में मानसिक दृष्टि से असंतुलित व्यक्ति ऐसी हरकतें करते हैं, जिनके कारण समाज की तथा स्वयं उनकी परेशानी में वृद्धि होती है और वे अक्सर आत्महत्या तक कर डालते हैं.

इन दिनों सोशलमीडिया, पोर्न के विस्तार और कंजरवेटिव विचारधाराओं से समाजों में मनोविकारों की बाढ़ आई हुई है. शारीरिक रोगों की तुलना में मानसिक रोगों से ग्रसित व्यक्ति और भी अधिक संख्या में हो गये हैं. अन्तर इतना ही है कि शारीरिक पीड़ा प्रत्यक्ष होती है और देखने-जानने पर उसका पता आसानी से लग जाता है, किन्तु मनोरोगी देखने में सही होते हुए भी भीतर से सही नहीं होते, यह जब उनके करीब बैठो तब पता चलता है कि वे कितने खतरनाक स्तर पर बीमार हैं. फोबिया एक बीमारी ही है. एक अज्ञात भय जिसको राजनीतिक विचारधाराएँ निर्मित करती हैं. निषेधात्मक दृष्टिकोण अपना लेने पर भीतर से ही भय, आशंका, चिन्ता, आवेश, अविश्वास जैसे भूत उगते, उछलते हैं. झाड़ी में भूत रहते नहीं; पर आशंकाग्रस्त जब मानसिक संतुलन खो बैठते हैं, तो वह झुरमुट ही दाँत निकालते, आँखें फाड़ते भूत प्रेतों की तरह दृष्टिगोचर होते हैं. कई बार तो वह डरे हुए व्यक्ति के लिए प्राणघातक तक बन जाते हैं. तिल का ताड़ ऐसे ही लोग बनाया करते हैं.

इस विक्षिप्त मनःस्थिति के रहते व्यक्ति सदैव उलटा चलता है और अपनी बहुमूल्य मानसिक क्षमता का दुरुपयोग करता है. वे हजारों सोशल मीडिया पर जो घृणा, फेक न्यूज फैलाते हैं वे बड़े मानसिक विकृति के शिकार हैं. अभी हाल ही में एक घृणा और फेक न्यूज फ़ैलाने वाला अकस्मात मर गया. मानसिक विकृति से उपजे तनाव को नहीं झेल पाया और उसकी हृदयगति रुक जाने से मृत्यु हो गई.

इसे अपने आप कुल्हाड़ी मारना कह सकते हैं. ऐसे व्यक्ति घृणा, द्वेष, हिंसा का समर्थक करते हैं और स्वयं ही अतिशय घाटे में रहते हैं. यह समाज में सनकी समझे जाते हैं और स्वजन-संबंधियों के सहयोग तक से वंचित हो जाते हैं. इस परिस्थिति में न तो कोई प्रगति कर सकता है, न सुखी रह सकता है.

ऐसे सनकी लोगों की संख्या में बहुत बढ़ोत्तरी हुई है. इस बढ़ोत्तरी के पीछे ज्यादातर फासिस्ट शक्तियां हैं जिन्होंने अपने निहित स्वार्थ के लिए इन्हें नीचे गिराया है ताकि समाज को नीचे गिरा कर उनपर शासन कर सकें. जब लोगों में अज्ञानता बढ़ जाती है, तब शैतान उनपर शासन करता है. फासिस्ट शक्तियों को शैतानी शक्ति कह सकते हैं, ये मूलभूत रूप से भौतिकवादी नवचार्वाक हैं. मनोरुग्णता सोशल मीडिया युग की एक बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है. इन मानसिक विकृतियों के कारण व्यक्ति और समाज दोनों को असाधारण हानि उठानी पड़ रही है. किसी फासिस्ट की मानसिक रुग्णता को घनिष्ठ साथियों के अतिरिक्त और कोई समझ तक नहीं सकता, साधारण रीति से खाते, बोलते, चलते, फिरते देखकर किसी को अनुमान तक नहीं होता कि, यह सनकी अर्ध विक्षिप्तता की स्थिति में रहकर ऐसी विसंगतियाँ उत्पन्न कर रहा है. ऐसे लोगों का कोई इलाज भी नहीं हो सकता है क्योंकि वे अपने को रोगी मानते नहीं मानते. दंगा करने वाले क्या खुद को रोगी मानते हैं? मानसिक विकृतियों में उपरोक्त संशय सनक के अतिरिक्त और भी कई हैं, जिनमें एक अलग ही आवेश है इसलिए असहिष्णुता इनका स्वभाव है.

कामुक-चिन्तन भी इसी किस्म का एक रोग है, जो दृष्टिकोण को तो दूषित करता ही है, चरित्र में दुष्टता और भ्रष्टता की मात्रा बढ़ाता है. सोते-जागते अश्लील पोर्न इमेजेस और कल्पना चित्र ही मस्तिष्क में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं. ऐसे असंख्य कल्पना चित्र रंगीली तस्वीरों की तरह दीखते रहते हैं, जिनका व्यवहार रूप में उतर सकना कदाचित ही संभव होता है. जिस मस्तिष्क को कामुकता की गठिया ने जकड़ रखा है, वह कोई उपयोगी चिन्तन प्राप्त कर ही नहीं पाता. आधुनिक युग की अनेक बीमारियाँ इसकी उपज है. पोर्न एक्सट्रीम स्तर का इंटनेट पर उपलब्ध है जिसका दुष्परिणाम यह है कि समाज में बलात्कार की घटनाएँ 300% बढ़ गई हैं.

मनोविकारों का गंभीर प्रभाव शरीर पर पड़ता है और आहार-विहार में कोई व्यतिरेक न होने पर भी व्यक्ति चिन्ता की परिधि में आने वाले अनेकानेक मनोरोग बरसाती उद्भिजों की तरह उभरता है. शरीर के ऊपर पूरी तरह मन का आधिपत्य है. हाथों का उठना, पैरों का चलना तभी होता है, जब मन वैसा करने की आज्ञा दे. स्वस्थ मन ही शरीर का समुचित निर्देशन करता है और सदा उसे सही स्वस्थ स्थिति में बने रहने की सुविधा उत्पन्न करता है. निराश व्यक्ति की सभी गतिविधियाँ मंद पड़ जाती हैं क्रोधी व्यक्ति की आँखें लाल हो जाती हैं. भयभीत का हृदय धड़कने लगता हैं. शक से भूख मारी जाती है. अनिष्ट की आशंका से नींद उड़ जाती है. इन विकृतियों के कारण रक्त-संचार, पाचन-क्रम, गहरी नींद आदि सभी आवश्यक गतिविधियों में भारी व्यतिरेक उत्पन्न हो जाता है. जिसे अनेक मनोरोग घेरे रहें, उनकी स्थिति तो उबलते दूध वाली कढ़ाई जैसी हो जाती है.

‘मानसिक-आधि’ ‘शारीरिक व्याधि’ के रूप में आमतौर से परिणत होती देखी जाती है. ऋषि यह उपदेश करते आये हैं, जिन्हें शरीर को निरोग रखना हो, उन्हें मनोविकारों के भयंकर दबाव से छुटकारा पाने का प्रयत्न करना चाहिए. योग वशिष्ठ में इस विषय पर बड़ा वृहद उपदेश प्राप्त होता है. योग और वेदांत दोनों मनुष्य की मनोरुग्णता का बेहतरीन समाधान बताते हैं परन्तु उसका उपदेश नहीं किया जाता बल्कि उसका उपदेश करने वाले ही काफी मनोरुग्ण होते पाए जाते हैं. रुग्ण चित्तवृत्तियों को हटाकर उसे स्वस्थ बनाना योग का एक प्रमुख उद्देश्य है परन्तु इसका उपदेश नहीं दिया जाता. सोशल मीडिया पर सबसे बड़े घृणा-विद्वेषक योग करने वाले पाए जाते हैं. मानसिक दृष्टि से स्वस्थ व्यक्ति शरीर से थोड़ा बहुत अस्वस्थ रहने पर भी अपनी गतिविधियाँ और उत्तरदायित्वों पूरा कर लेता है. शरीर का रोगी मानसिक दूरदर्शिता के सहारे शरीर रोगों से निपट लेता है. किन्तु जिसका मन गड़बड़ा जाता है उसे आहार-विहार की समुचित सुविधाएँ रहने पर भी अनगढ़ चिन्तन रहने के कारण अनेकानेक बीमारियों, समस्याओं एवं विपत्तियों से ग्रसित रहना पड़ता है.