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ज्योतिष शास्त्र काल निर्धारण शास्त्र है इसलिए यह एक प्रत्यक्ष शास्त्र है। इसका प्रयोजन बताते हुए महर्षि पराशर ने मैत्रेय से कहा है कि आयुष्य और लोकयात्रा इसका प्रमुख प्रयोजन है ‘आयुष्य च लोकयात्रा च द्वे शास्त्रेऽस्मिन प्रयोजनं’। इसका तात्पर्य है ये है कि ज्योतिष जातक की आयु की वृद्धि का उपाय बताता है और उसकी लोक यात्रा में ग्रह जनित जो परेशानियाँ आती हैं उसका निवारण करता है। ब्रह्मा जी ने गुणदोषमयी त्रिविध सृष्टि की रचना की इसलिए कोई भी काल न तो सर्वथा निर्दोष है और न ही सर्वथा गुणवान। बृहस्पति संहिता के अनुसार –
स्वभावादेव कालोऽयं शुभाशुभसमन्वित: । अनादिनिधन: सर्वो न निर्दोषो न निर्गुण:
ऐसी स्थिति में काल निर्धारण आवश्यक हो जाता है। वैदिक आचार्यों ने मनुष्य के आयुष्य और लोकयात्रा की संसिद्धि के लिए तुटी( समय का सबसे सूक्ष्म भाग ) से लेकर कल्प के अंत तक का काल निर्धारण किया। कौन से यज्ञ कब किये जाएँ इसका निर्धारण ज्योतिष ने किया जिससे उनके शुभ फल की प्राप्ति हो सके। काल के वशीभूत ही ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिव इसका संहार करते है। सभी काल के अंतर्गत ही अपने अपने कर्मो को सम्पादित करते हैं। काल से परे एक मात्र सत्ता ब्रह्म स्वरूप त्रिगुणातीत भगवान ही हैं। काल के स्वरूप को सम्यक रूप से जानने वाला और तदनुकुल कर्म करने वाला ईश्वर के स्वरूप को जानने वाला होता है, वह श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करता है । काल और कर्म का ज्ञान देने वाली इस गुह्य विद्या को ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम गर्गाचार्य को प्रदान किया था -होराशास्त्रमिदं सर्वं श्रद्धाविनयसंयुतः । श्रुत्वा गुरुमुखादेव बुद्धिमानवलोक्य च ।। यो जानाति स शास्त्रार्थं सर्वपापैः प्रमुच्यते । श्रावयेद्दर्शयेद् विद्वानन्यो गर्गो द्विजोत्तमः ॥ सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रह्मलोकं स गच्छति । वेदेभ्यश्च समुद्धृत्य ब्रह्मा प्रोवाच विस्तृतम् ॥ शास्त्रमाद्यं तदेवेदं वेदाङ्गं वेदचक्षुषी ।
जो बुद्धिमान् इस होराशास्त्रको श्रद्धा – विनयसे युक्त होकर गुरुके मुखसे सुनकर और ठीकसे समझकर शास्त्रके अर्थको जानता है , वह सभी पापोंसे छूट जाता है और ऐसा विद्वान् जो दूसरोंको सुनाता है और उपदिष्ट करता है , वह द्विजोत्तम दूसरे गर्गके समान होता है , वह – सभी पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोक प्राप्त करता है । यही वेदांग और वेदका नेत्ररूपी आद्यशास्त्र है , जिसे वेदोंसे निकालकर ब्रह्माजीने विस्तार पूर्वक गर्ग ऋषिको बताया था।

ज्योतिष सिर्फ वेदों का ही नेत्र नहीं है यह लोक (संसार) का भी नेत्र है। इससे प्राप्त दिव्य दृष्टि से ज्योतिष का विद्वान् भूत-भविष्य के अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष बोध कर लेता है और जातक को उसके अनुसार निर्देशित करता है। कोई परिघटना किसी विशेष काल में घटित होती है अन्यथा नहीं- उदाहरण के लिए समाज सुधार और उदारीकरण को ही लीजिये यह एक विशेष काल में घटित हुआ जब विशेष ग्रहीय संयोजन बना। पुनश्च इसके खिलाफ भी मुहीम चलाने वाले हिटलर जैसे नेता भी किसी विशेष समय में आये और आधुनिकता के खिलाफ जर्मनी का जनमानस पागलपन की इस हद तक गया कि 40 लाख लोगों को क्रूरता पूर्वक मार डाला। नाजी रिजीम ने जो क्रूरता दुनिया के समक्ष रखी वह पूर्व में कभी किसी काल में नहीं हुई थी। नाजी obsession जब अपने चरम पर पहुंचा तो आत्मघाती हो गया।  किसी भी मूल्य(सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक या राजनीतिक ) के लिए एक obsession और पागलपन  यूँ ही तो नहीं हो जाता? कलेक्टिव चेतना को प्रभावित करने वाले शक्तिशाली अप्रत्यक्ष कारक के बिना यह पागलपन और वहशीपन सम्भव ही नहीं है। किसी समाज या देश में ऐसी स्थिति विशेष ग्रहीय योगों और ट्रांजिट के बिना सम्भव नहीं होता।  यदि आप covid-19 की घटना को देखें तो यह वह समय है जब सभी ग्रह एक समय में एकराशि में ही स्थित हो गये और सभी ग्रहों की महामारक शनि से युति हुई, जीव गुरु बृहस्पति नीच अवस्था में लम्बे समय तक रहे।  ठीक इसके बाद शनि-गरु का great conjunction हुआ जो सैकड़ो साल बाद होता है। पूरी दुनिया हिल गई और लाखों लोग काल के गाल में समा गये, संसार की सभी गतिविधियां स्थगित हो गई। सब कुछ रुक गया।

जो चीजें समष्टि में घटित हो रही हैं वह व्यष्टि में भी घटित हो रही हैं। विश्व की सोच और प्रवृत्ति ऐसे ही नहीं बदल जाती, यह ज्योतिश्चक्र में ग्रहों के क्रमिक ट्रांजिट के अनुसार बदलती है। उदाहरण के लिए व्यक्तिगत कुंडली में भी जातक के चार्ट में यदि यह inscribed है कि वह आत्महत्या करेगा तो यह कभी भी सम्भव नहीं है। जब उसकी कुंडली में उस ग्रह की दशा चलेगी और ट्रांजिट में ग्रह उस बिंदु पर होंगे तब अकस्मात वह ऐसे कदम उठाएगा और खुद को खत्म कर लेगा। एक महिला की इस जन्म कुंडली को देखिये –यह महिला यूँ ही पागलखाने में और कोमा में नहीं गई होगी ? ऐसी विकट स्थितियां विशेष ग्रहीय योगो के बिना सम्भव नहीं होती। इसकी कुंडली में इसके कोमा में जाने और पागलखाने में 6 महीने रहने का दुर्योग है लेकिन उसे तब घटित होना था जब इसकी शादी होगी और यह प्रताणित और पीड़ित होगी। इस महिला जन्म मूल नक्षत्र में हुआ है। चन्द्रमा अष्टमेश बुध और नेपच्यून से युत है और  चन्द्रमा पर दो क्रूर ग्रहों षष्टमेश मंगल और तृतीयेश शनि का द्वादश स्थान से खतरनाक प्रभाव है। लग्न में सूर्य, युरेनस और केतु की खतरनाक युति है, गुरु भी लग्न में है लेकिन अंशों में काफी दूर है। इसका पंचमेश गुरु यदपि की शुभ है लेकिन द्वितीयेश होकर एक बड़ा मारक भी है और अष्टमेश के नक्षत्र में होने से और भी लग्न के लिए घातक हो गया। शनि द्वादश में उच्च का होकर सप्तमेश से युत है। ये शादी के दो वर्ष के बाद पति द्वारा बहुत प्रताणित हुई, पति ने इसे मारा पीटा जिससे इसकी मानसिक अवस्था असंतुलित हो गई और यह कोमा में चली गई और फिर पागलखाने में छह महीने रही।  जब हमने इस कुंडली का विश्लेष्ण किया तो इनके कर्मों का बहीखाता खुल गया। ये महिला मनोविज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त है। मेरी लम्बी कंसल्टेन्सी से उनको ऊबरने में सहायता मिली। कमोवेश 8 महीने की लम्बी कंसल्टेन्सी  और अनेक अनुष्ठानों से इसके पुण्य में वृद्धि हुई,  हमने जो कुछ बताया खुद करने के लिए वह उसने विधिवत किया, उसकी मां ने भी बहुत सारी चीजे की। पुण्य ने प्रभाव दिखाया और यह अब डार्क चेम्बर में मृत अवस्था से बाहर निकल गई है।

जो प्रत्यक्ष है वो तो थोडा ही है, जो अप्रत्यक्ष है वह तो बहुत अधिक है।  इस अप्रत्यक्ष को जानना ही परा विद्याओं का उद्देश्य है। मनुष्य की कांति ( मुख पीला होना, काला होना, लालिमा का होना इत्यादि ) देख कर उसकी दशा का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। यह कान्ति बताती है कि अमुक व्यक्ति किस ग्रह के गहरे प्रभाव में है, उसी ग्रह की दशा चल रही होती है। जातक वैसा ही बर्ताव करता है। जीवन के काल खंड में एक ही व्यक्ति कुछ वर्ष बहुत शांति और सुख पूर्वक रहता है लेकिन अकस्मात सब कुछ विनष्ट हो जाता है और वह दुखी, अशांत, उद्दिग्न होकर पिसाच की तरह घूमने लगता है। क्या बदल गया ? उसका घर वही है, उसकी बीवी-बच्चे वही हैं, उसकी नौकरी वही है लेकिन उसकी सुख-शांति क्यों जाती रही ? ग्रहों के प्रभाव में उसके बुरे कर्म का विपाक हो रहा है। महर्षि पतंजली ने यही तो कहा-“सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:” कर्म का मूल रहने पर ही जन्म, आयु और सुख-दुःख आदि भोग प्राप्त होते हैं और यही कर्म विपाक है।

किसी जातक की कुंडली में उसके सप्तम भाव (पत्नी/पति) में किसी  अशुभ ग्रह की स्थिति यूँ ही नहीं होती, यह उसके पूर्वार्जित कर्मों के कारण होती है जिससे जातक के उस भाव से सम्बन्धित विषय खराब हो जाता है और उसके दुःख का कारण बनता है। ज्योतिष इसे सम्यक रूप से समझने की योग्यता प्रदान करता है। आचार्यों ने इसीलिए कहा है कि ज्योतिष को जानने वाला ही शांति और पुष्टि कर्म करने में सक्षम होता है।
वैदिक काल से दुखी और पीड़ित मनुष्यों के हितार्थ ज्योतिष प्रयासरत है। ज्योतिष के आचार्य ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में शरीक हैं। माता पार्वती के जन्म के समय नारद जी ने जब उनकी कुंडली देख कर जो कुछ मैना को कहा था, क्या वही घटित नहीं हुआ ?  सब अक्षरश: घटित हुआ।