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शनि सबसे क्रूर ग्रहों में शरीक है. शनि का किसी ग्रह से कोई सम्बन्ध शुभ नहीं होता सिवाय तब जब शनि कुंडली में शुभ भावों का स्वामी हो. शुभ भावों का स्वामी का तात्पर्य ये है कि शनि उस कुंडली में केंद्र और त्रिकोण भाव का स्वामी हो. यह बात अन्य सबसे क्रूर मंगल के पर भी लागू होती है. कुंडली में शनि-चन्द्रमा की युति या दृष्टि से एक अशुभ पुनर्फू योग बनता है जो किसी भी काम में देरी का द्योतक है. यह योग का विशेष रूप से प्रश्न कुंडली में महत्व है. शनि सबसे धीरे चलने वाला ग्रह है (शनै: चरति ) इसका मन के कारक चन्द्रमा पर प्रभाव देरी कराने का कारण बन जाता है.

इस योग का जिक्र कुछ ग्रंथों में प्राप्त होता है लेकिन दक्षिण भारत के ज्योतिषियों ने इसका विशेष जिक्र किया है. चन्द्र शनि की युति के अतिरिक्त दृष्टि एवं राशि परिवर्तन से भी पुनर्फू योग निर्मित होता है. यह योग अशुभ फलदायी माना जाता है. पुनर्फू योग के कारण विवाह में रूकावट आती है. आमतौर पर इस योग से प्रभावित व्यक्ति की शादी विलम्ब से होती है और उनके वैवाहिक जीवन में परेशानी आती है. यह अशुभ योग जातक के जीवन में अचानक अचानक उतार-चढ़ाव का भी कारण बनता है.

जन्म कुंडली में शनि 1, 3, 5, 7 और 10 भावों में हो और यह चन्द्रमा से युत हो, दृष्टि सम्बन्ध बनाये, या चन्द्रमा के किसी नक्षत्र में हो और अपने ही उपनक्षत्र में हो या चन्द्रमा शनि के नक्षत्र में हो और अपने उपनक्षत्र में हो या दोनों का राशि परिवर्तन या नक्षत्र परिवर्तन हो तो पुनर्फू योग प्रभावी होता है. शनि किसी भी तरह चन्द्रमा से सम्बन्धित हो तो यह अशुभ योग बनता है.
कुछ ज्योतिष के विद्वान् यह मत रखते हैं कि युति की तुलना में शनि की तीसरी और दशम दृष्टि ज्यादा प्रभावशाली अशुभ पुनर्फू योग का निर्माण करती है. यह योग शादी के सम्बन्ध में विशेष अशुभ माना जाता है. शनि न केवल शादी में देरी करता है बल्कि शादी तय होने के बाद या शादी के समय भी गडबडी कर देता है. यह अशुभ दोष मंगल दोष की तरह का ही दोष है जो जीवन भर किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है.

यह दोष निम्नलिखित स्थितियों में निरस्त माना जाता है –
१-शनि और चन्द्र में से कोई या दोनों यदि सूर्य से युत हों
२-शनि और चन्द्र यदि सूर्य के नक्षत्र में हों
३-सूर्य जिस नक्षत्र में हो उसका स्वामी दोनों में कोई न हो
४-कोई ग्रह जो इनके करीब स्थित हो अर्थात युत हो लेकिन सूर्य के नक्षत्र में हो