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तारा दस महाविद्याओं में दूसरी महाविद्या मानी गई हैं. इन्हें पूर्ण विद्या कहा गया है. इनका ध्यान कुछ काली की तरह ही “प्रत्यालीढ़ पदां घोरां” है. तारा का बहुत प्रसिद्ध मन्दिर पश्चिम बंगाल के बीरभूमि जिले में स्थित है. हिन्दू शाक्त धर्म में मान्य 51 शक्तिपीठों में से 5 शक्तिपीठ तो पश्चिम बंगाल के एक ही जिला बीरभूम में स्थित है . इनके नाम कुछ इस प्रकार है- बक्रेश्वर/वक्त्रेश्वर शक्तिपीठ, नालहाटी शक्तिपीठ, बन्दीकेश्वरी शक्तिपीठ , फुलोरा या फुल्लोरा देवी शक्तिपीठ स्थित हैं. इन पांचों शक्तिपीठ में से तारापीठ शक्तिपीठ एक सिद्धपीठ के रूप में विख्यात है. यह भी कामख्या मंदिर की तरह ही तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए तंत्र में प्रसिद्ध है. मान्यता अनुसार इस सिद्धपीठ पर माता सती के दाहिनी आंख ( नयन) की पुतली का तारा गिरा था, जिस कारण से इस मंदिर को नयन तारा मंदिर औऱ तारापीठ मंदिर कहते हैं. कलिका पुराण के अनुसार देवी की आँख अमरकंटक के शोण शक्तिपीठ में गिरी थी. तारापीठ 51 शक्तिपीठों में मान्य नहीं है. ऐसी शाक्त सम्प्रदाय के ग्रंथों से मान्यता बनी है कि महर्षि वशिष्ठ ने ही यहाँ तारापीठ की प्राण-प्रतिष्ठा की थी. यह मन्दिर एक श्मशान में स्थित है इसलिए यह एक घोर तन्त्र का केंद्र है. इस श्मशान में साधना करने देशभर से तंत्र साधक आते रहे हैं.

बीरभूमि में सभी प्रमुख तारा मूर्ति रूप के मन्दिर हैं. वहां की मान्यता के अनुसार सती के तीनों नेत्रों के तारक बतीस योजन के त्रिकोण का निर्माण करते हुए तीन विभिन्न स्थानों पर गिरे थे. जहाँ, वैद्यनाथ धाम के पूर्व दिशा में उत्तर वाहिनी, द्वारका नदी के पूर्वी तट पर महाश्मशान में श्वेत शिमूल के वृक्ष के मूलस्थान में सती का तीसरा (ऊर्ध्व) नेत्र गिरा था, उसी जगह यह उग्रतारा पीठ स्थित है. इसके आलावा अन्य दो तारापीठ भी प्रसिद्ध हैं. मिथिला के पूर्व दक्षिणी कोने में, भागीरथी के उत्तर दिशा में, त्रियुगी नदी के पूर्व दिशा में “सती” देवी के बाँये नेत्र की मणि गिरी, तो यह स्थान “नील सरस्वती” तारा पीठ के नाम से प्रसिद्ध हैं. बगुड़ा जिले के अन्तर्गत “करतोया नदी के पश्चिम में दाँईं मणि गिरी, तो यह स्थान “एक जटा तारा” और भवानी तारा पीठ के नाम से विख्यात हैं. तारा रूपों में एकजटा को बहुत दुस्तर माना जाता है.

बीरभूमि और मिथिला के तारा पीठ दोनों का ही महर्षि वशिष्ठ से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है. ऐसा तंत्र ग्रन्थों में वर्णन है कि महर्षि वशिष्ठ ने तारा महाविद्या की घोर उपासना की थी. सहस्रों वर्ष बीत जाने के बाद भी उनका साक्षात् नहीं हुआ, तब उन्होंने समुद्र में जल समाधि लेने की ठान लिया. जब वे समुद्र में प्रविष्ट होने लगे तब देवी तारा ने आकाशवाणी द्वारा उन्हें चीनाचार विधि से साधना करने के लिए कहा. वशिष्ठ ऋषि तिब्बत गये और उन्होंने चीनाचार वाम मार्ग को सीखा और देवी की पुन: आराधना की जिससे तारा प्रसन्न हुईं और उन्हें दर्शन देकर प्रथम तारा सिद्ध बनाया. हिन्दू धर्म में वशिष्ठ ही इस महाविद्या के प्रथम साधक मान्य हैं. वशिष्ठ मुनि ने तारा मंदिर के निकट द्वारिका नदी के तट पर स्थित श्मशान में तारा मांं की आराधना की थी, जिसके कारण ये वशिष्ट आराधित तारा के नाम से भी जानी जाती हैं. स्थानीय परम्परा के अनुसार मुनि वशिष्ठ ने इस स्थान को इस कारण अपनी साधना के लिये चुना क्योंकि इसकी प्रसिद्धि पहले से ही सिद्ध पीठ के रूप में थी. तंत्र ग्रंथों में तारा के आठ रूपों की चर्चा मिलती है, ये हैं- उग्र तारा, नील सरस्वती, एकजटा , महोग्रा, कामेश्वरी, चामुण्डा, वज्र और भद्रकाली.

देवी तारा के आविर्भाव के संबंध में ‘कालिका पुराण’ में वर्णित है कि शुंभ व निशुंभ दानवों से पराजय के बाद जब देवतागण हिमालय में जाकर देवी मातंगी का आह्वान करने लगे तो उनके शरीर से महासरस्वती स्वरूप श्वेतवर्ण वाली कौशिकी के साथ काले की काली अथवा उग्रतारा प्रकट् हुई थीं. देवी तारा नील वर्ण की चार भुजाओं वाली होती हैं, जिसमें वे तलवार, खप्पर, कटार और नील कमल धारण करती हैं. तारा महाविदया हैं और इन्हें काली के बाद दूसरी पूर्ण विद्या कहा गया है. दस महाविद्याओं में दो ही पूर्ण विद्या है -काली और तारा. तारा नाम तारण से आया, यह ओंकार रूपिणी कही गई हैं. ॐ को तार कहते हैं इसलिए तारने वाली माता को तारा कहते हैं. ब्रह्मांड का जब प्रलय हो जाता है तब सिर्फ काल स्वरूप काली की सत्ता रहती है “प्रलयान्ते कालिका स्थिता”. जब काली अपने इस रूप का संवरण करती हैं और सृष्टि का पुन: प्रारम्भ होता है तब उस महाअन्धकार में तारा प्रकट होती हैं “सर्वान्ते कालिका मूर्ति त्यक्त्वा वस्त्रं पुनर्दधौ”. किसी ब्लैकहोल में तारे की कल्पना करिये, वही तारा का आद्य रूप है. तारा को पंच शून्यों पर स्थित बताया गया है” पंचशून्ये स्थिता तारा प्रलयान्ते कालिका स्थिता” . इसलिए काली और तारा के रूप में बहुत अंतर नहीं है दोनों का ध्यान कमोवेश एक जैसा ही है.

तारापीठ में यह मान्यता है कि जब महर्षि वशिष्ठ ने तारा महाविद्या को सिद्ध कर लिया तो उनके अनुरोध पर देवी ने उन्हें भगवान शिव को दुग्ध-पान कराते हुए मातृ स्वरुप में दर्शन दिये जिसके उपरांत वे शिलामूर्ति में परिवर्तित हो गईं. बाद में द्वारिका नदी के तट पर स्थित श्मशान से प्राप्त तारा मां की शिलामयी प्रस्तर मूर्ति को मुख्य तारा मंदिर में लाकर प्रतिष्ठित किया गया है जिसके उपर देवी की चांदी की मुखाकृति आवेष्ठित कर दी गई है जिसका दर्शन-पूजन श्रद्धालुगण करते हैं. प्रतिदिन देर रात्रि में भक्तों को देवी तारा के शिलारूप का दर्शन भी कराया जाता है.

आधुनिक समय में यह मन्दिर बंगाल के साधक वामाक्षेपा या बामाखेपा  के कारण और भी प्रसिद्ध हो गया. बामा’चरण या खेपा रामकृष्ण परमहंस के ही समकालीन थे. बताया जाता है कि बामाखेपा मंदिर के बगल में स्थित श्मशान में रहते थे और मां देवी तारा की आराधना करते थे. बामाचरण थोड़े उन्मत्त की तरह रहते थे इसलिए उनका नाम खेपा (पागल ) हो गया. जब वे सिद्ध हो गये तो उन्हें ही मन्दिर का प्रमुख पुजारी बना दिया गया. वे देवी के साथ पुत्रवत उन्मुक्त व्यहवार करते थे जिसके कारण मंदिर के पुजारी उन्हें बीच-बीच में प्रताड़ित करते रहते थे. एक बार बामा ने तारा मां को भोग लगाने के पहले ही उठाकर खा लिया जिससे क्रोधित होकर पुजारियों ने उन्हें मंदिर से निकाल बाहर कर दिया. मां के वियोग में बामा बगल के श्मशान में एक पेड़ के नीचे मां की रट लगाते हुए विलाप करने लगे. कहते हैं अपने पुत्र की इस दशा से मां तारा ने विह्वल होकर नाटोर स्टेट की रानी को स्वप्न दिया है कि मेरा पुत्र श्मशान में भूखा पड़ा है, तो मैं तुम्हारा भोग कैसे स्वीकार कर सकती हूं, पहले उसको भोजन दो. देवी के आदेश का रानी ने तत्काल पालन किया और तब से देवी को भोग लगाने के पूर्व बामाखेपा को भोजन देने की परिपाटी चल पड़ी. ऐसी मान्यता है कि मां तारा ने बामा खेपा को स्तनपान कराते हुए दर्शन दिये थे. कुछ का मानना ये भी है तारा ने उन्हें ही स्तनपान कराया था.

मां तारा को नील कमल पसंद है इसलिए तंत्र में इसकी विशेष महत्ता है. उन्हें जवा कुसुम और कमल का भी फूल अत्यंत प्रिय हैं, इस कारण तारापीठ में श्रद्धालुगण इन्हें आवश्यक रूप से मां को अर्पित करते हैं. यहाँ शनिवार, रविवार और सोमवार को मां तारा का दर्शन-पूजन परम आनंददायक तथा फलदायी माना जाता है. यह मन्दिर बौधों का भी मन्दिर है, वे भी यहाँ दर्शन, पूजन और साधना करने आते हैं.