भारतीय धर्म और दर्शन के अनुसार मनुष्य अपनी स्वयं की निर्मिती है. उसने स्वयं को अपने कर्मों से निर्मित किया है इसलिए भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य के सुख-दुःख में उसका स्वभाव ही प्रवर्तित होता रहता है. वह अपने कर्मानुसार तपस्वी ब्राह्मण के घर तुलसीदास के रूप में जन्म लेता है, दुःख भोगता है, कष्ट में रहता है परन्तु ईश्वर की उपासना में यावज्जीवन संलग्न रहते हुए ज्ञान और ईश्वर प्राप्ति करता है. कोई कर्मानुसार वेश्या, राजाओ के दरबार में नाच कर पैसे कमाने वाली नर्तकी, क्रिमिनल, कोई व्यापारी के घर जन्म लेता है और धन के लिए सब कुछ करता है. कोई राजनेता के घर जन्म लेकर राजयोग जन्म से ही प्राप्त कर लेता है. उसमे ईश्वर का कोई हाथ नहीं है. कर्मानुसार ही मनुष्य ऐसे परिवारों में जन्म लेकर वैसी बुद्धिसंयोग प्राप्त करता है “तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।”
मनुष्य का जो अध:पतन होता है, दुःख और कष्ट प्राप्त होता है, उसमें कारण उसका कर्म ही होता है. इसका सृजन ईश्वर नहीं करता, यह स्पष्ट रूप से वेद का मत है, भगवद्गीता में यही कहा है “न कर्तृत्वं न कर्माणि.. न कर्मफलसंयोगं लोकस्य सृजति प्रभुः” ईश्वर तुम्हारे कर्म का फल में कोई कारण नहीं, यदि तुम दुःख प्राप्त करते हो तो उसमे ईश्वर को कोसने का कोई कारण नहीं है. यह तुम्हारे अपने पूर्वार्जित कर्मों का फल है. यदि तुम शुभ कर्म करते हो तो वह स्वयं के लिए करते हो, उसका फल तुम्हे ही मिलेगा-ईश्वर उसे ग्रहण नहीं करता. “नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।” ईश्वर न तुम्हारे पाप लेता है और न ही पुण्य. तुम श्राद्ध कर रहे हो, यह एक पुण्य है इसका तुम्हे लाभ मिलेगा, लेकिन यह मत कहना की आज हमने पुण्य किया- हे ईश्वर अब मुझे रूपये दो ! ईश्वर नहीं सुनेगा.
मनुष्य का जन्म एक महत्वपूर्ण परिघटना है. मनुष्य जिस देश काल में जन्म लेता है वैसा ही उसका जीवन बनता है. देश-काल का मनुष्य के अशुभ जन्म में क्या महत्व है इसे पराशर ऋषि ने इस प्रकार बताया है-
अथाऽन्यत् संप्रवक्ष्यामि सुलग्ने सुग्रहेष्वपि । यदन्यकारणेनापि भवेज्जन्माऽशुभप्रदम् ॥
दर्शे कृष्णाचतुर्दश्यां विष्ट्यां सोदरभे तथा । पितृभे सूर्यसंक्रान्तौ पातेऽर्केन्दुग्रहे तथा ॥
व्यतीपातादिदुर्योगे गण्डान्ते त्रिविधेऽपि वा । यमघण्टेऽवभे दग्धयोगे त्रीतरजन्म च ॥
प्रसवस्य त्रिकारेऽपि ज्ञेयं जन्माऽशुभप्रदम् । शान्त्या भवति कल्याणं तदुपायं च वच्म्यहम् ॥
हे मैत्रेय ! शुभ लग्न एवं सुंदर ग्रहों का योग होने पर भी अन्य कारणों से मनुष्य का जन्म अशुभप्रद होता है, उसे मैं तुमसे कहता हूँ। जिसका जन्म अमावस्या, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी एवं भद्रा करण में, अपने सहोदर भाइयों के नक्षत्र में, माता पिता के नक्षत्र में, सूर्य संक्रांति में, पात योग में, सूर्य या चन्द्र ग्रहण में, व्यतिपात नामक अनिष्टकारी योग में, गंडान्तों में, यम घंट योग में, दग्ध योग में, तितर जन्य योग में ( तीन कन्या के बाद पुत्र या तीन पुत्र के बाद कन्या ) का जन्म हो, प्रसवविकार में जन्म अशुभ होता है। लेकिन शांति करने पर सभी शुभकारक होते हैं।
जन्म का समय ही जातक के भाग्य का निर्णायक और विधायक होता है इसलिए निम्नलिखित अशुभ काल में जन्म की विशेष रूप से शास्त्रों में चर्चा की गई है-
१- नीचगत सूर्य – सूर्य कार्तिक महीने में तुला राशि में नीच स्थिति को प्राप्त करता है। जिनका जन्म नीच अंशों में होता है उन्हें रोजगार में उतार चढ़ाव, कमजोर आत्मबल , कमजोर स्वास्थ्य , पुत्र की प्राप्ति में समस्या, सुख की कमी इत्यादि होते हैं।
२- नीचगत चन्द्रमा- हर महीने में एक बार चन्द्रमा वृश्चिक राशि में जाता है उसमें 3 अंश पर में नीच स्थिति को प्राप्त होता है। ऐसे चंद्रमा के होने से जातक में कई शुभ गुणों का आधान नहीं हो पाता। कुंडली के शुभ फलों में कमी कर देता है ।
३-सूर्य संक्रांति में जन्म- साल भर में सूर्य की बारह संक्रांति होती है, ऐसी संक्रांति काल में साढ़े छह घंटे आगे पीछे के समय का जन्म अशुभ होता है क्योंकि सूर्य दो राशियों के बीच स्थित होता है। २९.५४ अंश से ००:१५ अंश तक के बीच स्थित सूर्य कुंडली को बहुत कमजोर कर देता है और भाव के फल का शुभ प्रभाव नहीं देता।
४-सार्प शीर्ष – जिस तरह सांप के फन को देख भय होता है उसी तरह का यह एक खतरनाक योग है। मार्ग शीर्ष की अमावस्या के दिन जब चन्द्रमा और सूर्य अनुराधा नक्षत्र के तीसरे और चौथे पाद में हों तो यह योग बनता है। इस योग में जन्मे लोगों का भाग्य नाश होता है , ये दुखी, रोगी और अल्पायु होते हैं। सार्पशीर्ष में नीच चन्द्रमा का कुयोग भी सम्मलित रहता है इसलिए ज्योतिष के आचार्यों ने इसे विनाशक कहा है ।
५-गंडांत जन्म– रेवती-अश्विनी, अश्लेशा-मघा, ज्येष्ठा-मूल ये नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र कहे गये हैं। इनका संधि काल अशुभ फल प्रदान करने वाला होता है । इनमे जन्म को अभुक्त मूल कहा गया है- अश्लेषा का अंत मघा का प्रारम्भ, ज्येष्ठा का अंत मूल का प्रारम्भ, रेवती का अंत अश्विनी का प्रारम्भ गंडांत माना गया जिसका फल बड़ा विनाशक होता है। शास्त्र में आचार्यों ने शान्तिं के बाद ही सन्तान का मुख देखने का आदेश दिया है, यथा ऋषि शौनक-
अभुक्त मूलजातानां परित्यागो विधीयते । अदर्शनेवापि पितु: स तु तिष्ठेत्समाष्टकं ।।
नवमे वत्सरे (शान्तिं ) जन्मर्क्षे तस्य कारयेत । शान्तिं कृत्वा मुखं पश्येतपिता पुत्रस्य निश्चयात ।।
अभुक्त मूल में जन्म हो तो नव महीने पिता को सन्तान का त्याग करना चाहिए, तत्पश्चात विधि पूर्वक शांति के बाद ही मुख दर्शन करना चाहिए ।
५- अमावस्या और चतुर्दशी में जन्म – अमावस्या में जन्म हो या चतुर्दशी में जन्म हो दोनों ही अशुभ कहा गया है। अमावस्या – अमावस्या तीन प्रकार की होती है।सिनीवाली, दर्श और कुहू। प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक रहने वाली अमावस्या को सिनीवाली, चतुर्दशी से बिद्ध को दर्श एवं प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को कुहू कहते हैं । तीनों के अलग अलग फल बताये गये हैं। प्रतिपदा विरहित और चतुर्दशी युक्त तिथि में जन्म से जातक को दुःख प्राप्त होता है, परिवार विनष्ट होता है, विवाह भंग और अलगाव, ससुराल में मान सम्मान की कमी, जीवन में हर तरह की बाधा आती रहती है ।
६- यमघंट – यमघंट एक मुहूर्त योग है जो इन तिथियों में बनता है – रविवार को मघा नक्षत्र हो, सोमवार-विशाखा, मंगलवार -आर्द्रा, बुधवार-मूल, बृहस्पतिवार-कृत्तिका, शुक्रवार-रोहिणी, शनिवार-हस्त इन दिनों में चन्द्रमा इन नक्षत्रों में हो और इस यमघंट योग में जन्म हो तो जातक अशुभ परिणाम मिलता है ।
७-वैनाशिक नक्षत्र -जन्म नक्षत्र से गिनने पर २२ वें नक्षत्र को वैनाशिक नक्षत्र कहते हैं। इस नक्षत्र में जातक का लग्न इत्यादि पड़े तो अशुभ फल मिलता है ।
८- विषघटी – हर नक्षत्र की कुछ घटी से लेकर ४ घटी तक का समय अशुभ माना गया है जो निम्न लिखित प्रकार से है -१) अश्विनी-५० से ५४ घटी, २) भरणी,पूर्वाषाढ़ तथा उत्तरभाद्रपद -२४ से २८ घटी, ३) कृतिका,पुनर्वसु,रेवती व मघा-३० से ३४ घटी, ४) रोहिणी-४० से ४४ घटी, ५) मृगशिरा,स्वाति,विशाखा,व ज्येष्ठा -१४ से १८ घटी, ६) आर्द्रा व हस्त-२१ से २५ घटी, ७) पुष्य,चित्रा,पूर्वफाल्गुनी उत्तराषाढ़ा -२० से २४ घटी, ८) अश्लेषा-३२ से ३६ घटी, ९) उत्तरफाल्गुनी, शतभिषा – १८ से २२ घटी, १०) अनुराधा व श्रवण -१० से १४ घटी, ११) मूल-५६ से ६० घटी, १२) पूर्वभाद्रपद-१६ से २० घटी । इन घटियों में जन्म हो तो जातक को असफलता, अल्पायु होना , अचानक मुश्किले आती हैं और जिन्दगी भर परेशानी रहती है। शास्त्रों में इसका परिहार भी बताया गया है। मसलन यदि चन्द्र या लग्न स्वामी शुभ राशि में हो , शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हों , अपने नवांश में हो या लग्न से ९, ५, ७, ४ भावों में हो तो दोष नहीं होता या इसमें बहुत कमी हो जाती है।
९-महापात -यह सूर्य चन्द्र का क्रांति साम्य से बनता है । जब सूर्य और चन्द्र स्पष्ट का योग १८० अंश या ३६० अंश हो तो क्रांति साम्य का मध्य होता है इससे २-३ घंटे आगे पीछे क्रांति साम्य रहता है । इस काल में जन्म बहुत अशुभ माना गया है ।
१०- पाप कर्तरी योग– यदि चन्द्रमा या लग्न से दूसरे और बारहवें स्थानों में पाप ग्रह स्थित हों तो पाप कर्तरी योग होता है। द्वादश स्थित पाप ग्रह मार्गी हो और द्वितीय स्थित पाप ग्रह वक्री हो तो महाकर्तरी योग होता है जो जातक के लिए बहुत अशुभ होता है । यदि गुरु बारहवें हो, लग्न में कोई शुभ ग्रह हो, चन्द्र तीसरे हो, बुध-शुक्र-गुरु केंद्र में हो या त्रिकोण में हो, दुसरे भाव में शुभ ग्रह हो। कर्तरी योग निर्मित करने वाले ग्रह यदि नीच हों तो पाप कर्तरी योग का प्रभाव खत्म हो जाता है ।
११-रिक्ता तिथि – शुक्ल और कृष्ण पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है इन्हें अशुभ माना जाता है।
१२-व्यतिपात- सूर्य व चंद्र की क्रांति समान होने पर यदि दोनों एक अयन में हो तो व्यतिपात योग होता है। यह योग भी जन्म के लिए अशुभ माना गया है। वास्तव में विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, परिध और वैधृति योग में जन्म कुछ न कुछ परेशानियों को जन्म देने वाले होते हैं ।
कुछ और भी योग हैं जिनकी चर्चा किसी और आर्टिकिल में की जायेगी ..

